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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व रत्नत्रय तो एकमात्र निर्वाण का ही कारण है, अन्य गति प्रादि के बन्ध का कारण नहीं है, परन्तु रत्नत्रय के साथ जो पुण्यास्रव होता है, वह शुभोपयोग का अपराध है। फिर भी जगत् में "घी जलाता है" ऐसे प्रसिद्ध लोक व्यवहार की भांति रत्नत्रय को भी बन्ध के कारणपने का व्यवहार रूद्ध हो चुका है। अन्त में यह स्पष्ट किया गया है कि पूर्वोक्त निश्च य-व्यवहार रूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रमय मोक्षमार्ग है, जिस पर चल कर प्रात्मा परमात्म पद को प्राप्त करता है तथा लोक के अन्त में विराजमान होता है । वह परमपद कृतकृत्य है, समस्त पदार्थों का ज्ञाता है, विषयसुख से रहित ज्ञानानन्द मय है, ज्ञान स्वरूप है तथा मोक्षपद में सदैव आनन्द रूप से विराजमान रहता है।' प्राचार्य अमृतचन्द्र उपसंहार करते हुए जन नीति अथवा नय विवक्षा को दही की मथानी की रस्सी को खींचने वाली ग्वालिनी की तरह मुख्य तथा गौण करके वस्तु का सार प्राप्त कराने वाली बतलाते हैं । अंतिम पद्य द्वारा प्राचार्य अमृतचन्द्र घोषणा करते हैं कि "नानावों से शब्दों से वाक्यों की और वाक्यों से पवित्र इस पुरुषार्थसिद्ध युपाय शास्त्र की रचना हुई है, इसकी रचना में मेरा कुछ भी (कर्तृत्व) नहीं है।'
इस प्रकार समग्र कृति में विवेचित तथा यथाक्रम समायोजित विषयवस्तु से पुरुषार्थसिद्ध ग्रुपाय की रचना अपने प्राप में अद्वितीय, अनुपम व अनूठी है तथा अमृतचन्द्र के अमृतोपम अानन्दामृत से अभिसंचित है। सूत्रबद्ध, सुव्यवस्थित, सतर्क व सोदाहरण तत्त्वविवेचन से उक्त कृति का अपरनाम "जिनप्रवचनरहस्यकोश" सार्थक हो गया है। पाठानुसंधान -
आचार्य अमनचन्द्र की मौलिक एवं स्वतंत्र रचनाओं में पुरुषार्थ सिद्ध युपाय सर्वाधिक बिश्न त रचना रही है। जैन समाज के बाल गोपाल तक इसरो परिचित हैं । घार्मिक पाठशालाओं में इसका पठन-पाठन अवश्य होता है। इसकी विशेष प्रसिद्धि के कुछ कारण हैं। प्रथम तो, उक्त कृति श्रावकों के आचरण की प्रदर्शिका या आचार संहिता के रूप में ख्यातिप्राप्त है। दूसरे, इस रचना की निरूपण शैली अत्यंत सरल, सीधी एवं सतर्क है। तीसरे, इसमें निरूपित अहिंसा
१. वही, पद्य २१६ से २२४ तक ६. वही, पद्य २२६ बां
२. वही, 'पद्य २२५ वां ।