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कृतियाँ ।
[ २३१ का प्रकरण श्रावकाचारों की आद्यन्त परम्परा में अनुपम, अाकर्षक एवं आश्चर्यकारी है । चौथे, यह कृति आचार्य अमृतचन्द्र के अमृतोपम अध्यात्म रस से परिपूर्ण तथा जिनागम के गम्भीर रहस्यों की उद्घाटन करने वाली रचना है। पांचवे, इस ग्रन्थ की एक नहीं, अनेक प्रतियां मुद्रित एवं हस्तलिखित दोनों प्रकार की प्रायः प्रत्येक जिनमन्दिर तथा जैनशास्त्रमण्डारों में मिलती हैं। इतना ही नहीं, इस ग्नस्थ की प्रतियां अनेक श्रावको पाल उपना होती हैं। रमजोत हिनमन्दिरों में शास्त्रभण्डारों को देखा तो वहां पुरुषार्थसिद्ध युपाय ग्रन्थ की एक से अधिक प्रतियां उपलब्ध हुई । मैने स्वयं भी पाठानसंधान हेतु बीस प्रकार की विभिन्न टीकाकारों, सम्पादकों, अनवादको तथा लिपिकारों की पुरुषार्थसिद्ध पाय की प्रतियाँ प्राप्त की हैं जिनका विस्तृत विवरण आगे दिया गया है। उपलब्ध प्रतियों की भाषा हिन्दी, ब्रजभाषा, मराठी पञ्च व गद्य, गुजराती, अंग्रेजी इत्यादि हैं। ये सभी प्रतियां दो प्रकार की हैं मुद्रित तथा हस्तलिखित । मुद्रित में भी अधिकांश पुस्तकाकार सजिल्द हैं, कुछ शास्त्राकार अर्थात् पृथक् पृष्ठों वाली है। इनमें हस्तलिखित प्रतियां सर्वाधिक प्राचीन हैं। इसका कारण यह है कि मुद्रण के विकास के पूर्व तो हस्तलिखित प्रनियों के माध्यम से ही पठन-पाठन की परम्परा चलती रही है । हस्तलिखित प्रतियों में कुछ प्रतियों का विवरण इस प्रकार है - सर्वप्रथम टीका पंडित प्रवर टोडरमलजी जयपूर की ढढारी भाषा में उपलब्ध होती हैं, जिसे वे अपने जीवन काल में पूर्ण नहीं कर पाये । उसे पंडित दौलतराम जो ने विक्रम संवत् १८२७ (अर्थात् १७७० ईस्वी) में पूर्ण किया था । उक्त हस्तलिखित प्रति सजिल्द एवं सुन्दर लिखावट में है। लिपिकार फतेराम व्यास तथा लिपिकाल १६४६ विक्रम सबत् (१८८६ ईस्वी) है। यह प्रति श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर हनुमानताल जबलपूर( मध्य प्रदेश) के हस्तलिखित शास्त्र भण्डार
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१. कुछ देखे गये शास्त्रभन्डारों के नाम इस प्रकार हैं - सिवनी, वारासिवनी,
छिदवाड़ा, जबलपुर, गागर, भोगाल, इन्दौर, उज्जैन, विदिशा, गुना, सीहोर, इत्यादि (मध्यप्रदेश में), नागपुर, पूना, कोल्हापुर, सोलापुर, बालचन्दनगर, बाहुब लिकुम्भोज दरमादि (महाराष्ट्र में), जयपुर के कई शास्त्र भन्डार, आगरा, ब्यावर, अजमेर तथा अहमदाबाद, महेसाना, भावनगर, फतेपुर, (गुजरात) इत्यादि।