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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सर्वतः स्वरसनिर्भर भावं चेतये स्वयमहं स्व मिहकम् । नास्ति नास्ति' मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥'
इस श्लोक का सार बनारसीदासजी के सरस शब्दों में इस प्रकार हैकहै विचक्षणपुरुष सदा मैं एक हो,
अपने रससौं भर्यो मापनी टेक हों। मोह कर्म मम नाहि नाहि भ्रमकूप है,
शुद्ध चेतना सिन्धु हमारों रूप है ॥ ३. कर्ता, कर्म और क्रिया का स्वरूप बताते हुए उन तीनों को एक ही वस्तु के तीन नाम मंद करते हुए अमृतचन्द्र लिखते हैं -
यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामी भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥'
उपरोक्त श्लोकगत भावों को कितने सरल एवं सुबोध शब्दों में पं. बनारसीदास ने व्यक्त किया है। उनके शब्द इस प्रकार हैं -
करता परिणामी दरब, करम रूप परिणाम । किरिया परजय की फिरनि, वस्तु एक प्रय नाम ।
इस तरह के एक दो ही नहीं, सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण ही ग्रन्थ अमृतचन्द्र कृत समयसार कलश एवं टीका पर मुख्यपने आधारित है।
अंत में सम्यग्ज्ञान के बिना सम्पूर्ण चारित्र निस्सार है, यहां तक कि महाव्रत-समिति आदि का पालन भी कोई कीमत नहीं रखता" इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र घोषणा करते हैं कि -
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्थाद्, इत्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा, आत्मानात्मावगम विरहात् सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः॥५
१. समयसार कलश, पद्य नं.३० २. समयसार नाटक - जीयद्वार, पच नं ३३ ३. समयसार कलश, पच नं. ५१ ४. समयसार नाटक, कफिम क्रिया द्वार, पच ७ ५. समसार कलश, ऋमान १३७