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पूर्वकालीन परिस्थितियां ।
हात्स्यायन (विक्रम की द्वितीय सदी ), वैशेषिक मतानुयायी, प्रमुख आचार्य महर्षिकणाद ( विक्रम की तृतीय सदी पूर्व )२, सांख्यमत के सांख्यसूत्रकार प्राचार्यकपिल, बृत्तिकार आवार्य माठर (द्वितीय सदी विक्रम भाष्यकार गौर ( दिका की पांचवी सदी ), योगदर्शन के सूत्रकार पतंजलि तथा भाष्यकार व्यास (विक्रम की तृतीय सदी)". मीमांसामत में भादृमत प्रणेता कुमारिल्लभट्ट, गुरुमतसंस्थापक प्रभाकर मिश्र, मुरारिमतप्रवर्तक मुरारिमिश्र, वेदांतमत के प्रबल समर्थक, वेदांतसूत्र भाष्यकार प्राचार्यशंकर, बौद्धमतानुयायी आचार्य दिङ नाग तथा उद्योत. कर, शून्यवादी आचार्य नागार्जुन (तृतीय सदी विक्रम ), आर्य देव (तीसरी सदी विक्रम), स्थविर तथा बुद्धिपालित ( पंचमशतक वि. ) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त सभी प्राचार्यो और विद्वानों ने विक्रम सदी के प्रारम्भ से लेकर हवीं सदी तक घामिक स्पर्धा के यग को अनप्राणित एवं प्रभावित किया । वास्तव में ईसा की ७वीं, 5वीं और हवों शताब्दियां मध्यकालीन दार्शनिक इतिहास की क्रांतिपूर्ण शताब्दियां थीं। इनमें प्रत्येक दर्शन ने जहां स्वदर्शन' की किले-बन्दी की, वहां परदर्शन पर विजय पाने का अभियान भी किया। इन शताब्दियों में बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हए, उद्भटवादियों ने अपने पाण्डित्य का डिडिम नाद किया तथा दर्शनप्रभावना और तत्वाध्यवसाय संरक्षण के लिए राजाश्रय प्राप्त करने हेतु बाद रोपे गये । इस यग के ग्रन्थों में स्वसिद्धांत प्रतिपादन की अपेक्षा परपक्ष खंडन का भाग ही प्रमुख रूप से रहा है। इसो यग में महावादी भट्टाकलक ने जैन न्याय के अभेद्य दुर्ग का निर्माण किया था। उनकी यशोगाथा शिलालेखों और अन्य कारों के उल्लेखों में बिखरी पड़ी है। प्राचार्य भट्टाकलंक ने प्रमुखतः बौद्धों के साथ दार्शनिक संघर्ष किया और अनेकांत सिद्धांत को बिजयपताका फहराई। वे महानशास्त्रविजेता तथा महान् वाग्मी थे । वौद्धों के विचारों से होने वाली निरात्मकता से जन-जन की रक्षा करने की करुणाबुद्धि से वे ओतप्रोत थे । उनके सत्त्वप्रकोप के मूललक्ष्य वौद्धाचार्य ही थे। वे उनके अश्लील परिहास तथा कुतक पूर्ण कक्तियों का उत्तर भी बड़े मजे से देते थे। जब बौद्धाचार्य धर्मकीति ने - -
५. संस्कृत नाहित्य का इतिहास, डॉ. बलदेवप्रसाद उपाध्याय, पृ. ६६० २. वही, पृ. ६६३ ३-४. वही, पृ. ६६६ ५. वही, पृ० ६६७ ६. वही, पृ० ६५६७. सिद्धिविनिश्चय, प्र. पृ०७