________________
२८ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व
-
- -
में परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। उनकी प्रास्था में जिस मत या सम्प्रदाय का समर्थन किया, उसे हर प्रकार से ऊंचा उठाया, प्रचार किया, परन्तु जिस मत या सम्प्रदाय से उनकी प्रास्था हटी, उस मत के अनुयायियों को बलपूर्वक मत परिवर्तन कराया, उनका दमन किया उन्हें यातनाएँ पहुचाई, यहाँ तक उनको मौत के घाट उतारा गया । इतिहास के सैकड़ों पृष्ठ ऐसे वातावरण के वर्णन से भरे पड़े हैं। श्रीमती सिक्लेयर स्टीवेंशन इस सम्बन्ध में लिखती हैं-ई. सन् ६४० में, जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया तब वह दक्षिण में नग्न दिगम्बर मत के अनेक साघओं से मिला और उनके सुन्दर मंदिरों की प्रशंसा की। परन्तु उसकी यात्रा के पश्चात् महान परिवर्तन पूर्ण अभियान प्रारम्भ हुआ । एक जैन राजा कण ने अपना मत परिवर्तन कर सातवीं सदी के बीच शैवमत स्वीकार किया। अर्काट के त्रिबतर लेख से ज्ञात होता है कि उसने अपने पूर्व सहधर्मियों को हजारों की संख्या में कत्ल कर दिया, क्योंकि वे उसका अनुकरण करने को तैयार नहीं थे। इस तरह दक्षिण भारत में जैनमत का काफी ह्रास हुा ।' इधर उत्तर भारत में भो मुस्लिम अाक्रमणों का शिकार जैन गृहस्थों नथा जैनाचार्यों को बनना पड़ा।
आश्चर्य नहीं कि उत्तर भारत में मुसलमानों के विध्वंसकारी अभियान से कोई भी मन्दिर अवशिष्ट बचा हो। फिर भी जैनधर्म स्वयं ही उस आंधी में नहीं बुझ पाया, जिस प्रांधी ने आसानी से बौद्धों का भारत से सफाया किया । उत्तर भारत की भांति, दक्षिण भारत में मलिककाफूर" के नेतृत्व में मुसलिम आक्रमण की लहरों से जैन सन्तों
1. In A. D. 604 when the Chinese traveller Hiuen 'Isang visited Indiy, toe met
numbers of monks belonging to Diyambar (oaked) sealin the south aod admired their beautiful temples. But after his visit, A great prosecution urose. A Jain king, Kuna becaine comverted to Shaivism in the middle of the sevçoth venlury and if we may frest the sculpturce at trivatur in Arcot, siew with the horrible severity thousands of his former co-religionists who refuses to follow his example............. This time the prosperity of Jainisin in tbe South steadily declined. (The Heart of Jainism by Sent, Sinclair Stevenson. Ed. by J. N. Fatauhar.
Page-BEdn, 1915) 2. To return to the North, the wonder is not, that any temples Servived the
mohaninadaaprosecutions, but that Jainism it self was not extinguished in a storm which sinply swept Buddhism out of India, Ibid - Page 18.