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। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
कहते हैं। प्राचार्य उसे अभ्यथित अर्थ की सिद्धि का उपदेश देकर अनुगृहीत करते हैं यही अनुगृहीत विधि है ।'
४ नग्नत्व धारण किया :- तत्पश्चात वह यथाजात रूप धारण (अर्थात् जन्म के समय जैसा नग्न रूप धारण करता है। वह विचार करता है कि कोई परद्रव्य उसके नहीं, वह किसी परद्रव्य का नहीं है। वास्तव में प्रात्मा को समस्त परद्रव्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है। समस्त लोक में एक प्रात्मा ही उसका है अन्य कुछ भी नहीं। इस प्रकार इन्द्रिय नोइन्द्रिय को जीतकर जितेन्द्रिय होता है। आत्म द्रव्य का सहज रूप धारण करने से यथा जातरूता पर दोता है। थानाना भर यात्मा के अयथाजातरूप धरत्व के कारण रूप मोह-राग-द्वषादिभावों का प्रभाव होता है तथा उनके प्रभाव के कारण, वस्त्राभूषण धारण, सिर व दाढ़ी के बालों का रक्षण, परिग्रह का लेशमात्रपना, सावद्य (हिंसा-कारक) योग से सहितपना तथा शारीरिक संस्कार करना -- इन पांचों का प्रभाव होता है। इस प्रकार बाह्य लिंग होता है। साथ ही मोह-राग-द्वेषादि के अभाव के कारण ही ममत्व परिणाम, जिम्मेदारी ग्रहण का भाव, शुभाशुभ से रंजित उपयोग की शुद्धता, तथा परद्रव्यों का सापेक्षपना, इन सभी का अभाव होता है, इसलिए अंतरंग लिंग भी होता है। इस प्रकार दोनों लिंगधारी होकर श्रमणपने को प्राप्त करता है ।२
५. २८ मूलगुणों का धारण :-२८ मूलगुणों में ५ महाव्रतत ५. समिति, पांच इन्द्रियजय, षट् आवश्यक तथा शेष ७ गुणों का उल्लेख है। मुनियों के १२ तप :
इनमें ६ बहिरंग तप हैं तथा छह अंतरंग तप हैं। बहिरंग तपों में अनशन, ऊनोदर (एकाशन), विविक्त शय्यासन अर्थात् जीव रहित स्थान में रहना, रस परित्याग तथा काय-क्लेश, ये छह बताये गये हैं; तथा दर्शन ज्ञान चारित्र-उपचार-रूप विनय करना, अपने गुरु आदि पूज्य पुरुषों की सेवा करने रूप बयाबृत्य, गुरु के समक्ष अपने दोषों को कहना - प्रायश्चित, शरीर में ममत्व में व्युत्सर्ग, चारों अनुयोगों के अभ्यास रूप स्वाध्याय
१. "ततो श्रामण्याची प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि .......।"
-प्रवचनलार गाथा २०३ टीका। २. वही, गाथा २०५, २.६, २०७.