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कृनियों ]
| ३६६ सालंकृत दीर्घसमास-दीर्घवाश्य प्रयोग रूप शैलो :
उक्त टीकाकार की अलंकारयुक्त, समासमयी तथा दीर्घकाय वाक्य प्रयोग रूप शैली भी अत्यन्त आकर्षक है। उक्त विशेषताओं से युक्त गद्य में वाक्यविन्यास चातुरी, शब्दासंघटनारूप कुशलता, ध्यन्याकर्षण, सहजप्रवाह, अनुप्रास चालता आदि वैशिष्ट्य भी विद्यमान हैं। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत निम्नांकित गद्यांश उपरोक्त विशेषताओं से तो परिपूर्ण है ही, साथ ही अमृतचन्द्र की असाधारण भाषाप्रभुता, प्रौढ़ता तथा प्रखर विद्वता का भी परिचायक है । यथा - प्रागम-ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्त्व का युगपतपना होने पर भी प्रात्मज्ञान के मोक्षमार्ग का साधकतमपना बताते हुए लिखा है – 'यदज्ञानी कर्मक्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पध्यमानमुपात्तरागद्वेषतया सुखदुःखादिविकारभावपरिणत: पुनरारोपितसंगानं भवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निस्तरति, तदेव ज्ञानी स्यात्कार केतनागमज्ञानतत्त्वार्थधवानसंयतत्वयोगपद्यातिशयप्रसादासादित मुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणशानित्वसद्भावात्कायवाड्.मनःकपिरमप्रवृत्तत्रिगुप्तत्वात प्रचण्डोपक्रमपव्यमानमपहस्तित रागद्वेषतया दुरनिरस्तस मस्त सुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छ वासमात्रेणैव लीलयेव पातयति । अत प्रागमज्ञानतत्वार्यश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्य ऽयात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।
....... . . --- उसी प्रकार प्रशासगमस्यरूप शुभोपयोग के ज्यों का त्यों होने पर भी पात्र की विपरीतता से फ। की विपरीता होती हैं। क्योंदियाए के भेद गे कार्य का भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है। प्रवचनसार, गा. २३८ - अर्थ जो कर्म (अज्ञानी को) क्रमपरिपाटी ने तथा अनेक प्रकार के बालत्तपादि रूम उद्यम से पकते हुए, राग-द्वेष को ग्रहण क्रिया हुना होने से मुख दुःखादि विकारभावरूप परि एमित होकर, पुन: उसकी संतान-परम्परा को पारोपित करता हुआ लक्षकोटि भवों तक जिस प्रकार यजानी पार करता है, वहीं कम सानी। को स्थानमा रतनरूप आगमज्ञान, तत्वार्थवद्धान और संयतत्व के युगपत्पने के अतिशय प्रसाद प्राप्ती हुई मुझज्ञानमय यात्मतत्व की अनुभूति लक्षण वाले ज्ञानोपने के सदभाव के कारगा काय वचन मन के कर्मों के उपरभ (विश्राम) से त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होने से प्रचण्ड उद्यम से पचता हुआ, राग-द्वेग के छोड़ने से समझ सुखदुःखादि विकारः अत्यन्त निरस्त हुमा होने से. पुन: महान (राग-नुष की