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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आचार्य अमृतचन्द्र ने जहाँ उक्त दीर्घकाय, - पाण्डित्यपूर्ण, अर्थगरिमायुक्त तथा प्रभावोत्पादक भाषाशैली का प्रयोग किया है, वहाँ उन्होंने लघुकाय वाक्य, सरलसुबोध तथा प्रभावमयी शैली का भी प्रयोग किया है। एक स्थल पर अध्यक्सान का स्वरूप बताते हए उक्त शैली का प्रयोग किया है। लघुकायवाक्यावलि युक्त शैली - यथा -
"रत्रपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवमितिमात्रमध्यवसानं, तदेव च बोधनमात्रत्वाद् बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद् व्यवसाया, माननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञाप्तिमात्रत्वादविज्ञान, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चित्तो भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वाद्परिणाम ।"
इस प्रकार यहाँ प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रयुक्त लौकिक साहित्यिक भाषा शैलियों का परिचय कराया गया। अब उनकी कतिपय अलौकिक दार्शनिक कथन शैलियों पर भी प्रकाश डाला जाता है। उपरोक्त उद्धरण में लधुबाक्य मयी शैली के साथ ही साथ हेतु परक शैली का भी प्रयोग हुआ है। यथा "बोधनमात्रत्वात्" पद के अंत पंचमी विभक्ति के प्रयोग द्वारा हेतृपने को प्रदर्शित किया है। उक्त पद का अर्थ है "बोधनमानपने के कारण" प्राध्यवसान को बुद्धि कहा है। यहाँ "के कारण" पद हेतु वाचक है। उक्ल पंचमी विभक्ति का प्रयोग प्रायः उक्त उद्धरण के प्रत्येक वाक्य में किया गया है । यही उनके द्वारा प्रयुक्त हेतुपरक दार्शनिक शैली है । उत्त शैली शैली का एक और उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । पुण्यजनित
परम्परा) को आरोपित न करता हुआ उच्छ्वास मात्र में ही लीला से ही ज्ञानी नष्ट कर देता है। अत: प्रागमन, तत्वार्थश्रद्धान तया संयसपने का युगपतपना होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्ष का साधकतम कारग मानना चाहिए। समयसार, गाथा २७१ की टीका-अर्थ - "स्वप'र का अविवेक होने पर जीय को अध्यवसिति (परणति) मात्र से अध्यवसान है, वही बोधनमापने के कारण बुद्धि है, व्यवसायमापने के कारण व्यवसाय है, मननमा अपने के कारण मति है, विज्ञप्तिमात्रपने के कारण विज्ञान है, चेतनामात्रपने के कारण चित्त है, चेतन के भवनमात्राने के कारण भाव है, चेतन के परिणाममा अपने के कारण परिणाम है।