________________
३६८ ]
| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
इस प्रकार उक्त तुलनात्मक शैली का प्रयोग मात्र गद्य में ही नहीं हुआ अपितु पद्यों में भी इसी शैली का प्रयोग बड़ी ही कुशलता के साथ हुआ है। उदाहरण के लिए ज्ञान मोक्ष का कारण है, कर्म मोक्ष का कारण नहीं है - इस बात की सिद्धि हेतु वे दो पद्यों द्वारा विभाजित रेखा खींचकर स्पष्ट करते हैं - यथा -
वृत्त ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यम्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ।।१०६।। वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि ।
द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।।१०७।।' दृष्टांत शैली :
प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रयुक्त दृष्टांत शैली अत्यन्त स्पष्टता के साथ प्रतिपाद्य विषय को उद्घाटित करती है। दृष्टांत के कारण विषयवस्तु अत्यन्त सरल एवं सहजग्राह्य हो जाती है । यथा - एक स्थान पर सुभोपयोग की कारणविपरीता मे फल विपरीतता होती है, यह स्पष्ट करते हुए लिखा है -
यथैकेषामपि बोजानां भूमिवपरीत्यान्निष्पत्तिवपरीत्य, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवपरीत्यात्फलवैपरीत्थं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ।।
से अज्ञानमय भाव ही होता है । और उसके होने से, स्वपर के एकत्व के अभ्याम के कारण ज्ञानमात्र ऐसे निज में से भ्रष्ट हुआ है, पर कप रागद्वेष के साय एक होकर स्वयं अहंकार में प्रवत रहा है । "यह मैं पवार्थ में रागी हूं, द्वेषी हूं" ऐसा मानता हुना रागी और द्वेषी होता है । इसलिए अमानमय भाव के कारण अज्ञानी अपने को पररागद्वेपरूप करता हुआ कमों को करता है। समयसार कलण १०६-१०७ अर्थ - "जान एक (जीब) व्यस्वभावी होने से ज्ञान के रव भाव से सदा ज्ञान का भवन बनता है, इसलिए शान ही मोक्ष का कारण है। १०६।" कर्म प्रन्य (पुद्गल) द्रब्यस्वभावी होने से कम के स्वभाव से ज्ञान का भवन नहीं बनाता है, इसलिए कर्म
मोक्ष का कारण नहीं है।" १७७ । २. प्रवचनसार गाथा २५५ की टीका - अर्थ - "जैसे बीज ज्यों का यों होने
पर भी भूमि की विपरीसता से निष्पत्ति (फल) की विपरीतता होती है,