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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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इसी तरह अमृतचन्द्र ने प्रथम अवस्था में व्यवहारनय को हस्तावलंब रूप बताया, साथ हो खंद भी व्यक्त किया कि वह भी परद्रव्यों से भिन्न, चैतन्यचमत्कार मात्र देयने (अनमव करने वालों के लिए यह व्यवहार भय कुछ भी उपयोगो नहीं है । यथा --
ध्यपहरणनवः स्थात् पर्धा .. ३६मां,
इह निहितपदानां हन्तहस्तावलम्बः । तदपि परमर्थ चिच्चमत्कार मात्र
पर बिरहितमन्तः पश्यतांनष किंचित् ।।' इन्हीं शब्दों तथा भावों को ग्रहण कर पं. आशाधर ने भी लिखा है कि जैसे नट रस्सी पर स्वच्छन्दतापूर्वक बिहार करने के लिए बारम्बार बांस का सहारा लेते हैं और उसमें दक्ष हो जाने पर उसका सहारा छोड़ देते हैं, वैसे ही धीर मुमुक्ष को निश्चय में निरावलम्बन पूर्वक विहार करने के लिए बारम्बार व्यवहारनय का अवलम्बन लेना चाहिए तथा उसमें (निश्चय में) समर्थ हो जाने पर व्यवहार का आलम्बन छोड़ देना चाहिए। मूल गाथा इस प्रकार है
भूतार्थ रज्जुवत्स्वेरं बिहतु वंशबनमूहः ।। थयो धीरेरभूतार्थों हेयस्तविहतीश्वरैः ।। (पं. आशाघर )२
यहां हम अमृतचन्द्र के अनुकरण पर लिखे गये पं. पाशाधर के पद्यों को मूल रूप में ही प्रस्तुत करते हैं।
१, बन्धन होने तथा न होने के नियम का उल्लेख अमृतचन्द्र ने इस प्रकार किया है
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धन नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन तु ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । ग्रेनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। (अमृतचन्द्र)
उपरोक्त तीनों पद्यों का भाव एक ही पत्र में समाहित करके पं. आशाघर ने लिखा है
१. समयसार कलश, नं. ५ २. अनगारधर्मामृत, प्रध्याम प्रथम, पद्य नं. १०१ ३. पुरुषार्थ सिर युपाय, पद्य क्रमांक २१२, २१३, २१४