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________________ १६४ ] [ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व येनांशेन विशुद्धिः स्याज्जन्तोस्तेन न बन्धनम् । येनांशेन तु रागः स्यात्तेन स्यादेव बन्धनम् ।। (पं. आशाघर)' २. रागादि की अनुत्पत्ति को अहिंसा तथा उसको उत्पत्ति को हिंसा बताते हुए अमृतचन्द्र जैनागम का सार इस प्रकार व्यक्त करते हैं - अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसे ति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ इसी अभिप्राय की पुनरावृत्ति पं. पाशाघर निम्न शब्दों में करते हैं परं जिनागमस्येदं रहस्यमवधार्यताम् । हिंसा रागायुद्भुतिरहिंसा तदनुद्भवः ॥ ३, आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि यद्यपि परवस्तु के कारण आत्मा को जरा भी हिंसा नहीं होती, तथापि परिणामों की निर्मलता के लिये हिंसा के स्थानों से निवृत्त हो जाना चाहिये । यथा - सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तु निबन्धना भवति पुसः । हिंसायतन निवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। इन शब्दों का ज्यों का त्यों अनुसरण करते हुए पं० आशाघर भी लिखते हैं -- हिंसा यद्यपि पुस: स्याम्न स्वल्पाप्यन्य वस्तुतः । तथापि हिंसायतनाद्विरमेद्भावविशुद्धये ।। ४. प्रात्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घात होने को ही हिंसा बताते हुए तथा असत्य वचनादि भेदों को शिष्यों को समझाने के लिए कहा गया है - इस प्रकार कथन करते हुए अमृतचन्न ने लिखा है - आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिसतत् । अनुतबसनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।' इसी कथन को आधार बनाकर पं० पाशाधर ने भी लिखा है - १. अनगारधर्मामृत, अध्याय प्रथम, प्रलोक नं. ११० २. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ४४ ३. अनगार धर्मामृत, अध्याय चतुर्थ श्लोक नं. २६ ४, पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ४६ ५. अनगार धर्मामृत, अध्याय ४ पद्य नं. २८ ६. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, पद्य नं. ४२
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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