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प्रस्तावना
डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न एम. ए., पीएच. डी.
अध्यात्मसरोवर में आकण्ठ-निमान प्राचार्य अमृत वन्द्र ने अपनी ऋतियों में अध्यात्म की ऐसी मन्थर मन्दाकिनी प्रवाहित की है कि जिसके अमल शीतल जल में डुबकी लगाने वाले आत्मार्थीजन अद्भुत सुख-शांति का अनुभव करते हैं । विगत एक हजार वर्ष में न जाने कितने आत्मार्थियों ने इस पावन अध्यात्मगंगा में मजन कर शुभाशुभ भाव के संताप से मुक्ति प्राप्त कर तन्द्रिय समन्ध का रसपान किया है, कर रहे हैं और भविष्य में भी करेंगे।
अयि कथमपि मृत्वा तत्व कौतूहली सन्,
अनुभव भव मूर्तः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् ।। अरे भाई ! किसी भी प्रकार मरकर भी तत्वों का कौतली होकर - निज भगवान आत्मा का रुचित होकर -- इन शरीरादि मूर्त पदार्थों का पड़ोसी होकर कम से कम एक मुहूर्त (४८ मिनट - दो घड़ी) अपने प्रात्मा का अनुभव तो कर।
विरम किमपरेरणाकार्यकोलाहलेन,
स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् ॥' अरे भव्यात्मा ! अन्य व्यर्थ के कोलाहल करने से क्या लाभ है ? तू जगत के इस कार्य कोलाहल से विराम ले, इसमें समय खराब मत कर । एक छह महिना जगत से निवृत्त होकर एकमात्र निज भगवान प्रात्मा को देख ।"
मृदु सम्बोधनों से मुक्त ऐसी असंख्य प्रेरणायें प्राचार्य अमृतचन्द्र के साहित्य-गगन में पग-पग पर दृष्टिगोचर होती हैं, जो साधकों के हृदय को झकझोर देती हैं, उन्हें प्रात्मानुभव करने की, प्रात्मा में ही समा जाने की ओर प्रेरित करती रहती हैं । अन्तर को छ लेने वाले ये मृदुल सम्बोधन आत्मार्थियों की ऐसी सम्पत्ति हैं. जो उन्हें अन्तर की गहराई में उतरने की प्ररणा तो देती ही है, साथ ही सन्मार्ग से भटकने भी नहीं देती।
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१. समयसार कलश, २३ २. समयसार कलश, ३४