________________
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर भी उसका अस्तित्व, देह स भिन्नत्व और देहान्तर गमन का कारण स्पष्ट किया है । यहाँ बौद्धमत सम्मत अनित्यपना और पंचभूतमयता के सिद्धान्त का खण्डन किया गया है। सिद्धों के जीवत्व और देहमानत्वपने की सिद्धि श्री गई है। शिद्धों में कार्यकारणपने का निराकरण करके, जीव अभाव-स्प मुक्ति मानन का भी खण्डम किया गया है । चेतयिता गुण की व्याख्या करके उपयोग गुण के अंतर्गत दर्शन तथा ज्ञान भेद किये हैं । सामान्यग्राही दर्शन तथा विशेषग्राही ज्ञान का कथन करके ज्ञानोपयोग के ८ भेद गिनाये हैं। प्रार्ग क्रमशः दर्शनोपयोग के ४ भेद, उनके लक्षण बताकर, आत्मा के अनेक ज्ञानात्मकप, का, द्रव्य व गुणों में परस्पर भिन्नपना मानन में दोष का, द्रव्य और गण के अनन्यपने का, षट्कारक भेद व्यवहार से भी द्रध्य में व गुणों में अन्यपना नहीं हो जाता - इत्यादि का सयुक्तिक निस्पण किया है । वस्तु का स्वाप दाभेदला दीया है । पुनः द्रव्य और गुण के अर्थान्त रखने में दोष दिखाते हुए युसिद्ध तथा अबुसिद्ध की भी चर्चा की है । ज्ञान तथा जानी में समवाय संबंध मानन का खण्डन करते हुए, "द्रव्य का गुणों के साथ अथवा गुणों का द्रव्य के साथ अनादि अनंत सहवर्तीपना होना यही जैनों का समवाय है", ऐसा घोषित किया है। अंत में द्रध्य तथा गुणों के अभिन्न पदार्थपने के व्याख्यान का उपसंहार करते हुए उपयोग गुण का व्याख्यान पूर्ण किया है।'
आगे, अपन भावों को करते हुए जीव अनादि गन्नत है ? सादि सांत है ? सादि अनंत है ? साकार रूप परिणत है ? या तदाकार रूप अपरिणत है ? इत्यादि अंकायों का समाधान करते हुए जीव में अनादि अनंत तथा सादि सांतपन विरोध दिखाई देने का निराकरण किया नै । जीव के सद्भाव के उच्छेद और सदनात्र के उत्पाद में निमित्तभुत नर-नारकादिरूप नामकर्म की प्रकृतियों का उदय है । जोय झ . भावों की सूचना देते हुए लिखा है कि कर्मों के फलदानसमर्थपन रूप में उदभव को उदय, अनूदभत्र को उपशम, उदभव व अनदभव को क्षयोपनम, अत्यन्त विश्लेषण को क्षय, द्रव्य के हो यात्मलाभ के हेतु को परिणाम कहते हैं । यहाँ उदय से युक्त को प्रौदयिक, उपगम से युक्त को गौपमिक क्षयोपलम से युक्त को क्षायोपशमिशशाय ग धुत्त का शाबिन और परिणाम से युक्त को पारणामिक ---.. ... १. भमयव्याख्या गा. २७४ तयः । २, ममगागा ना.४ " . |