________________
४६२ ।
। प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के उपरोक्त विचार स्यावाद की महिमा के प्रकाशक हैं। वे जिस प्रकार अनेकांत को मूर्तिमन्त रूप में स्मरण करते हैं उसी प्रकार स्याद्वद मुद्रा को भी मूर्तिमन्त रूप में ही देखते है । वे लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र ! जो अनक बार विश्व को अच्छी तरह शब्द मार्ग का विषय बनाकर एक साथ कायन करने में नहीं मुक्ती, ऐसी को यह नसोर दान जाना हान सामने उठ खड़ी होती है । ' हे भगवान् : शब्दों में दृढ़ता स्थापित पेरने के लिए ही आपन स्यादाद मृद्रा को रचा है । इसलिए उस स्याद्वाद मुद्रा से चिन्हित वे शब्द स्खलित न होते हुए अपने आप वस्तु को तत् अज्ञत् स्वभाव पुक्त निरूपित करते हैं।' प्राप वस्तु के नास्ति पक्ष के निरूपण की शब्दों को असर्थता नहीं चाहते, इसलिए स्यात् पद के प्रयोग द्वारा शब्दों को उक्त निरूपण में समर्थ करते हैं। स्यात पद, शब्द में द्विवाशक्ति पैदा करता है जिसस अस्तिनास्ति' उभय शक्तियों का प्रतिपादन होता है । यद्यति शब्द स्वयं ही हूँ व शक्ति युक्त है क्योंकि कोई किसी में शक्ति पैदा नहीं कर सकता परन्तु उक्त शब्द की वैधशक्ति स्यावाद की सहायता से ही प्रकट होती हैं। इसलिए उसे व्यवहार से शक्ति उत्पादक कहते हैं। यदि जगत में एक ही शब्द से दोनों पक्ष व्यक्त किये जाना संभव होता तो स्यात् पद प्रयोग को प्रावश्यकता न होती परन्तु दुसरे शब्द का उपयोग भी अर्थपुर्ण माना जाता है इसलिए द्वैध शक्ति के विवाद में पड़ना व्यर्थ है । स्याद्वाद के अाश्रय से मुख्य (विधि) पक्ष द्वारा गौण । निषेधः पक्ष को भी अभिव्यक्ति होती है। विवक्षित की मुख्यता तथा अविवक्षित को गौणता होती है। उक्त मुख्य तथा गौण दोनों में मंत्री होती है तथा स्यात्कार पद के श्राश्रय १. प्रत्यक्षमुनि निष्ठुरेयं पाद्वादमुद्राहठकः रतन्ते । __ अनेकाश; शब्दाथोपनीतं संस्कृत्य विश्वं मममस्त लन्नी ।।
- लघु तत्व स्फोट अ. = पद्य १५ गिरा वनाधानविधान देतोः स्याहादमुद्रःममृजस्त्वमेव । नडिय नास्ते तदतत्त्व भावं वदन्ति यातु स्वयमः बलन्त'; !।
-वही. अ. स. पद्य २० ३. नस्यास्तंगमनमनिच्छता त्रये व स्यात्कारायणगुणाद्विधान तिम् । मापेक्ष्यं प्रविधता निषेधशत्तिादत्तासौ स्त्र रस भरंगा बल्गती ।।
-वही अ, १८ पद्य लभ तत्त्व रूफोट, अ, १७, 'पद्म३, १८, १६. रचात्कार: किमु कुरुते सती सती वा सादानाम अमुभी मका स्थापितम् । यद्यस्ति भरसत एव मा कृतिः कि नासत्याःकरणामह प्रसह्य मुत्तम् ।। १७ ।।