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दार्शनिक विचार ]
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स्यावाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, अर्हन्तसर्वज्ञ का एक अस्त्रलित शासन है ।' स्याद्वाद वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने बाला दीपक है। वह लहलहाट तेज से युक्त, शुद्ध स्वभावरूप महिमा से संयुक्त ज्ञानरूप प्रकाश को उदित करने वाला है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्याद्वाद को जिन्द्र भगवान की सिद्धान पद्धति लिखा है । यह पद्धति नयों के समूह में पाये जाने वाले दुनिवार विरोध को नाश करने वाली है तथा स्यात्कार ही उसका जीवन है। वे लिखते हैं कि निश्चय व्यवहार दोनों नयों में विषयापेक्षा परस्पर विरोध है। उस विरोध को नाश करने बाला यातपद है। "स्यात्पद' से चिन्हित जिनेन्द्र की वाणी में जो पुरुष रमण करते हैं, में शीघ्र ही मोह का वमन (त्याग करते हैं तथा तत्काल परमज्योतिरूप प्रकाशमान शुद्धात्मा (समयसार) को देखते हैं । वह शुद्धात्मा नवीन नहीं है तथा एकांत रूप कुनय के पक्ष से खण्डित भी नहीं है । जिनेन्द्र की वागी रूप जो शब्द बह्म है वह स्यात्पद से मुद्रित होता है ।" स्यात्पद मुद्रा में ला शब्दशतिः स कारन में असमर्थ होती है क्योंकि विरोधी धर्म से सापेक्ष होने के कारण जिनेन्द्र के शब्द विरुद्ध धर्म से युक्त वस्तु को स्पर्श करते हैं परन्तु स्थाद्वाद मुद्रा से रहित शब्द बस्तु स्वरूप के एक देश में शक्ति बिखर जाने से स्खलित हो जाते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र
१. स्याहामो हि लगतवतत्व पायक पस्खलित शासनमहसार्वजस्व ।
-प्रात्मख्याति, परिशिष्ट पृ. ५४१ २. स्थावाददीपितलसन्मसि प्रकाणे. शुद्धस्वभावमहिमन्युदित मीनि । कि बंधमोनपथपातिभिरन्यभाव - जित्योदय: परगयं राफुरतु स्वभावः ।।
-ससा. क. २६९. ३. दुनिबारनयानीक विरोधध्वंसनौषधिः,
स्यात्कारजीविता जीयाजनी सिद्धान्त पद्धति । -पंचास्तिकाय टीका, , ४. उभयनय विरोषध्वलिनी यारपदांके, जिननचसि ररान्त ये स्त्रयं बान्त मोहाः । सपदि समयसार त परं ज्योनिरूच्च, रनमानयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।
समयसार कलश ४ "स्यास्पदमुद्रित गन्दब्रह्मोपासनजन्मा"" समयमार मा. ५ की टीका विपक्षसापेक्षतमेव दाः स्पृशन्ति ते वस्तु विरुद्धधर्मा। तदेव देशेऽपि विशीणंसारा: स्वाद्वादमुद्राविकालाः स्वगन्ति ।। १२ ।।
-लघु-नत्य स्फोट, अध्याय ,