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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आपका विधि निषेध में रचित स्वभाव अपनी मर्यादा का उलंघन किये विना कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष की भांति अपनी द्विरूपता को नहीं छोड़ता । आप प्रस्ति-नास्ति उभयरूप प्रतीत होते हैं । प्राप स्वचतुष्दय से भावरूप तथा परचतुष्टय से अभावरूप हैं । ऐसे अापके द्धशक्ति युक्त स्वभाव को अज्ञानी जनों द्वारा समझा जाना कठिन है ।' वास्तव में सत् रूप कथन असत् की अपेक्षा रखता है यदि ऐसा न हो तो वस्तुस्वरूप अपनी मर्यादा तोड दवें। हे जिनेन्द्र, निज तथा परपदार्थ दर्शन का विषय होने से दर्शन गण में प्रविष्ट हो रहे हैं, इसलिए आपके द्वारा स्वपर का भेदशान करने के लिए विधि तथा निषेध की (अनेकांत) पद्धति का निर्णय किया गया है। 3 स्यावाद को प्रावश्यकता तथा महत्ता :
हम यह स्पष्ट कर चुके है कि प्रकान्त और स्याद्वाद दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध है । अनेकान्त वस्तु का स्वरूप है तथा स्याद्वाद वस्तु स्वरूप प्रतिपादक कथन शैली है । अनेकांत ज्ञानगोचर वस्तु है तो स्माद्वाद वचनाभित कथन पद्धति । यद्यपि अनुभूति वाणी से परे तथा वाणी अनुभति से भिन्न वस्तु है. तथापि अनुभूति को इंगित करने वाली प्राणी ही है। अज्ञानी जीवों को वाणी के सर्वत या वचन व्यवहार विना बस्तु स्वरूप का परिज्ञान एवं अनुभव होना असंभव है अतः स्याद्वाद की आवश्यकता स्पष्ट है।
१. त्रिभो विधानप्रतिषेधनिर्मिता स्वभावसीमानममूमलङत्रयम् ।
त्वमेव मेगाऽयम शुक्न शुक्लवन्न जास्वपि द्वयात्मकतामपोहसि ।। १४ ।। भक्त्सू भावेषु विमान्यतऽस्तिता तथाऽभवत्सु प्रतिभाति नास्तिता । स्वमहिलनास्नित्य समुदयेन नः प्रकाशमानो न ननोवि विस्मयम् ।। १५ ।। उपरि भावं त्वमित्मना भन्न भारतां यामि परात्मना भवन् । प्रभाव भावोपचितोऽयमस्ति से समान एन प्रतिपक्तिदागगा; || १६ ।।
-लक्षु तत्त्व स्फोट अ. ४, २. इयं सदियुक्ति रपेक्षते मयाबृश्निमी मनितसत्वृत्ती; । जमत्समक्षा सहभव ा व्यभावसीमानमथान्यथार्थः ।।१३।।
वही अ. , ३. दशि दृश्णतया परितः पयाक्तिरेतरमीश्वर संविणतः । अत एव विवेगकृते भवता निरणामि विभिप्रतिषेध विधिः ॥ १३ ॥
वही, अ, १४,