________________
दार्शनिक विचार :
{ ४५६ प्रस्तुत किया है। इन्होंने अनेकान्त शैली में अत्यंत स्पष्ट प्ररूपणा की है। निश्चय तथा व्यवहार अथवा द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक नयों में प्रस्तुत निरूपण भी अनेकांत शैली के अन्तर्गत समाहित है। अनेकान्त शैलो में निरूपण :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अनेकान्तमयी शैली में टीकाएं रची, मौलिक गंगों को परूपणा की मशः निगम की स्तुति करते हुए भी उक्त शैली का प्रयोग किया है। जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए वे एक स्थल पर लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र देव ! पाप सदैव पदार्थ की प्थिरता का उपदेश नहीं देते और सदा ही आत्मस्वरूप की महिमा की अस्थिरता को दूर करते हैं, इसीलिए आपका पाश्चर्यकारक चैतन्यज्योति द्वारा प्रसिद्ध आत्मस्वभाव एक होने पर भी विधि निषेत्ररूप अथवा अस्ति नास्ति रूप है ।' आपका सहज स्वभावोत्पन्न निर्माण (म्वरूप भवन) विधि तथा निषेध रूप से सुशोभित है अतः आप में प्रकट अनुभव में आने वाला सत् असत् आदि विकल्पों का समूह उच्छलित हो रहा है, इसमें पाश्चर्य नहीं है। आप देदीप्यमान, बहत भारी, परस्पर मिश्रित अनंत चतुष्टय रूप संपत्ति के समूह से प्रकाशित होते हैं । नित्य अनित्य, एक अनेक आदि अनेक धर्मों सहित हैं, अविनाशी हैं । आपको एक धर्म में स्थिर दृष्टि रखने वाले (एकांतदृष्टि) पुरुष कैसे देख सकते हैं ।
अस्तीनि ध्वनिरनिवारिस: प्रणाम्यन्यत् कुर्य निधिमयमेव नैव विनम् । स्त्रस्वार्थ परगमनानिवर्तयन्तं तनं स्पृशति निषेधमेव माक्षात् ।। १४ ।। नास्तीति निमितमन उ कुशप्रनारायलयं अगित करोति नव विश्वम् । तन्नूनं लियमपदे तदात्मभूमावस्तीति व्यनितमपेक्षते स्वयं तत् ।। १५ ।। सापेक्षो यदि न विधीयते बिधिरतल्यस्यार्थ ननु विधिरेव नाभिधस्त ।
विध्यर्थ; म खलु परान्निषिद्धमर्थ यत् स्वस्मिन्नियतमसो स्वयं अवीति ।।१६।। १. नावस्थिति जिनददाति न चाऽनवस्थामुत्थापयस्यनिशमात्ममहिम्नि नियम् । पेनायमद् तुतविद्गमचंचुरुचरेकोऽपि ते विधिनिषेधमय स्वभावः ।। ५ ।।
- लघुतत्त्व स्फोट, अर, यस्मादिदं विधिनिषेधमयं चकास्ति निरिणमेव सहजप्रविजृम्भतं ते । तस्मात् सदा सदसशदिविकल्पजालं त्वय्य विलासमिदमुत्प्लवते न चित्रम् ।।६।।
नही अ, २, परस्परं संवड़ितेन दीयताम मुन्निषन्भूनि मरेण भूयसा। स्वमेका धमी वहिलाचलेक्षणीक धर्मा बाथमीक्ष्यसऽक्षर; || ११ ।।
वहीं अ.