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दार्शनिक विचार
[ ४६६ करके म्यादाम को शायदवाद संशयवाद अथवा अनिश्चयवाद और संभावना वाद का बोधक माना है, जो भ्रमपूर्ण है। उक्त समात भ्रमों की जड़ स्यात् पद का निश्चित निहित अर्थ न करके अन्य अर्थ की कल्पना करना है । आचार्य अमृलचन्द्र ने उक्त भ्रांति को दूर करने हेतु स्यात् पद को निपात तथा “किसी अपेक्षा" अर्थ का पर्यायवाची लिया है । स्यात् पद का प्रर्थ अंग्रेजी का परहेप्स"५ अथवा "में बी" न होकर 'काम सम प्याइंट ग्राफ न्हयु' है। स्थाहाद का यार्थ भाव ग्रहण का फल :
प्राचार्य प्रगृतचन्द्र ने न्यावाद को यथार्थ समझने का महान फल प्रदशन करते हुए लिखा है कि प्रानंदामृत के पूर मे भरार प्रवहमान कैवल्य सरिता में जो डबा है. जगत् को देखने में समर्थ महाविदन रूप लक्ष्मी जिसमें प्रमुबई. जो उत्तम रत्न किरण की भांति अत्यंत स्पष्ट और इष्ट. ऐसे प्रकाशमान निजतन को जगत् जन स्यात्कार लक्षण वाले जिनेन्द्र शासन के प्राथप से प्राशन करें। जो पुरुष स्याद्वाद में कुशल तथा संपर में शुश्थित होते हैं, वे नित्य अपने स्वरूप को भाते हुए, ज्ञान तथा क्रियानय में मित्रता स्थापित करते हुए जानवभावी निजात्मद्रव्य की भूमिका को प्राप्त करते हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने स्याद्वाय शली में वस्तु स्वरूप की अनेकांतात्मकता सिद्ध करने में विशेष पद्धता प्रदर्शित की है। समयमार की प्रात्मख्याति टीका के प्रत में आत्मा की अगक शक्तियों में - - - - - - 1, "Perhaps'' 2. 'May he 3. Brown Somu Point of View.
प्रानंदानपूरनिर्भर वकवल्य कल्लोलिनी, निर्मग्नं जग दोक्षणक्षममहासंवेदन श्रीमुम्बम् । स्यात्कारा कजिनेशशासनवशादासादयन्तुलनसन् स्वं तत्त्वं वृत्तजारपरन पिरणप्रस्पष्टमिषः जनाः ।।
-तत्त्वप्रदीपिका, रिशिष्ट, पृ ४१५ ५. त्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहाहाः जमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानवपरस्परतीवमैत्री पात्रीकृतः अयति भूमिमि । स एकः ।।
-समयसार कलश, २६७