________________
जीवन परिचय ]
भी गाथा भेद पाया जाता है, उदाहरण के लिए स्वयं जय सेन ने समयसार श्री यायः नयर १३:४६ य; २५२ ये चार गाथाएं छोड़ दी हैं जिन पर अमृतचन्द्र ने टीकाएँ लिखी हैं, परन्तु जयसेन ने कोई टीका नहीं लिखी। उन गाथाओं में प्रयम दो में सांख्यमत सम्मत "जीव पुद्गल द्रव्य को कर्मभाव से परिणमाता है।" इस तर्क का खण्डन तथा पुद्गल द्रव्य का परिणामस्वभावपना सिद्ध किया गया है।' तीसरी गाथा में "पर द्वारा आयकर्म का हरण संभव न होने से अपना मरण किया जाना संभव नहीं है" तथा चौथो गाथा में "पर द्वारा आयकर्म दिया जाना संभव न होने से अपने लिए जीवन दिया जाना संभव नहीं है" इस प्रकार सिद्धान्तों का निरूपण है। इस पर से यह फलित करना, कि जयसेन को सांख्यमत का उक्त तर्क खण्डन करना इष्ट नहीं था तथा उन्हें परकृत आयहरण तथा आयप्रदान के सिद्धांतों का खण्डन भी इष्ट नहीं था, कदापि उचित नहीं माना जा सकता ।
गाथा भेद के सम्बन्ध में दूसरा उदाहरण प्रभाचन्द्राचार्य का है जिन्होंने प्रवचनसार की जयसेनीय टीका में उपलब्ध एका गाथा छोड़ दी है। उसे अमलचन्द्र ने भी १८८ गाथा के बाद छोड़ा है। उक्त छूटी हुई गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड की १६३ वी गाथा है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि किसी विद्वान् अध्येता ने गाथा १८८ में वर्णित बंधप्रकरण से साम्य रखने वाली उक्त गोम्मटसार की गाथा हांसिये पर लिख ली होगी जिसे प्रतिलिपिकार ने प्रवचनसार की मानकर प्रकरण में सम्मिलित कर लिया होगा। ऐसी ही प्रति जयसेन के समक्ष होगी। उसे जयसेन ने प्रवचनसार की गाथा मानकर टीका लिख दी।
इस सम्बन्ध में तीसरा उदाहरण बालचन्द्र का है। उन्होंने भी प्रवचनसार में जयसेनीय टीका में प्रयुक्त अतिरिक्त गाथाओं की कन्नड़ में टीका नहीं लिखी। १. 'अयजीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तक;"
इस तर्क का खण्डन गा. ११६ तथा १२० में किया गया है. जिसे जयसेन ने __ छोड़ दिया है। २. "सुहूपयडीग विमाही तिब्बो अमुहारण संकिलेसेण ।
विवरीदेण जहणो अणुभाग सब्बपयडीगं ॥' १६३॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड ३. प्रवचनसार, (अंग्रेजी) द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १-७, प्रस्तावना डॉ. ए. एन.
उपाध्ये