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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं काव का स्वाभाविक-उर्ध्वगमन होता है ।
तृतीयाधिकार में पुद्गलद्रव्यास्तिवाय का वर्णन किया है । प्रारम्भ. में पुदगलद्रव्य के चार लेद गिनाये जो क्रमश: एकंधपर्याय, स्कंधदेशपर्याय, स्कंधप्रदेशपर्याय तथा परमाणु हैं । इनके लक्षण लिखकर स्कंधों में पुद्गल संज्ञा सिद्ध की है । पुनः कंधों के ६ प्रकार कहे हैं जो क्रमशः बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मवापर, सूक्ष्म और सूक्ष्ममूक्ष्म हैं । इन के उदाहरण क्रमशः काष्ठ-पाषाणादि, दूध-घी-तेलादि, छाया-धूपादि, स्पर्श-रस-गंध व शब्दादि, कर्मवर्गणादि तथा दो अगु बाटे तक स्कंध हैं । परमाणु को अविभागी, एक प्रदेशी, मुर्तद्रव्य रूप से अविनाशी होने से नित्य कहा है। मूर्तत्व के कारणरूप, स्पर्श, रस, गंधादि द्वारा प्रादेश मात्र से परमाणु में भेद किया जाता है । अागे शब्द को पुद्गल द्रश्य की स्कंध पर्याय कहा है तथा महास्कंधों के परस्पर टकराने से ही शब्दोत्पत्ति कही है। आगे परमाणु के एकप्रदेशीपन तथा गुणपर्यायमय वर्तने का कथन किया है। अंत में सर्व पुद्गल भेदों का उपसंहार करते हुए अध्याय समाप्त किया है । . .
चतुर्थ अधिकार में धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्य का स्वरूप निरूपण किया है । धर्मास्तिकाय को अमूर्त (अर्थात् स्पर्श-रस-गंध-वर्णादि व शब्द से रहित), समस्त लोकाकाशव्यापी, अखंड, विशाल एवं असंख्यात प्रदेशी कहा है। उसका विशेष कथन करते हुए उसके गति देतुपने को अष्टांत से स्पष्ट किया है। ग्रागे अधर्मद्रव्य को भी धर्मद्रव्य की तरह गुणोंवाला कहा, परन्तु गति हेतुपने की जगह इस स्थिति हेतुपन का धर्म होता है । लोक-अलोक के विभाग का ज्ञान धर्म तथा अधर्म द्रव्यों से ही होता है । उक्त दोनों द्रव्यों के अस्तित्व की सिद्धि करते हुए लिखा कि यदि इन्हें न माना जाय तो जीव पुद्गल के निरंकुश गति तथा स्थिति परिणाम को रोका नहीं जा सकता । द्रव्यों की गति व स्थिति आदि अलोक में भी सम्भव होगी, साथ ही लोकालोक का विभाग भी भमा त होगा । यथार्थ में धर्मद्रध्य न तो स्वयं गमन करता है और न ही अन्य द्रव्यों को गमन कराता है, अपित गतिशील द्रव्यों का उदासीन कारण (निमित्त) है । इसीप्रकार अधर्मद्रव्य भी किसी को रोकता नहीं, अपितु रुकते हुए द्रव्य को उदासीन हेतु है ।
१. समयव्याल्या, गा. ६६ गे १३ तत्र । २. वही, गा. ७४ स ८२ तवः । ३, बही, गा, - ३ से ८५ तक ।