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दार्शनिक विचार |
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असंभव है । अतः अन्य विषयों की भांति निमित्त उपादान को यथार्थ समना मोक्षमार्गी का परम कर्त्तव्य है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त विषय पर भी पूर्वाचार्यो की दार्शनिक विचारधारा का ही विशेषतः स्पष्टीकरण किया है। उक्त दोनों को ग्राम में निमित्त कारण तथा उपादान कारण के नाम से व्यवहृत किया है ।
कारण का स्वरूप :
जिसके होने पर ही जो होता है, नहीं होने पर नहीं होता, वह उसका कारण कहलाता है । कार्य की उत्पादक सामग्री को भी कारण कहते हैं । 3 कारण दो प्रकार के होते हैं प्रथम - निर्मित कारण, द्वितीय
उपादान कारण 1
निमित्त कारण का लक्षण :
जो कारण स्वयं तो कार्यरूप न परिणमे, किंतु कार्य की उत्पत्ति में सहायक हो उसको निमित्त कारण कहते हैं, जैसे बड़े की उन्ति में भिकार, दंड, चक्र आदि । निमित्त कारण को "परयोग" भी कहते
निर्मित कारण के पर्यायवाची नाम :
आगम में प्रत्यय, कारण तथा निमित्त को एकार्थवाची लिखा है ।" इसके अतिरिक्त सात सहकारी उरकारी, उपग्राहक, आश्रय, आलम्बन,
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२.
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विद्यावृतम् भूपितवृद्धिफलोदमाः ।
न त्यति नम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।। ३२ ।।
- संगतभद्राचार्य कृत रत्नकरण्ड श्रावकचार |
यन्त्र स्निन् सत्येव भवति नासति तत् तस्य कारणमिति ।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रश्नोत्तर नं. ४०२
वहीं, प्रश्नोत्तर ४०७
"है निमित्त परयोग में अन्यो अनादि बनाव "
- वल पु. १२ पृ. २०६.
- या भगवतीदास कृत "निमित्तनाशन संवाद" पद्य ३
प्रत्यवः कारणं निमित्तमित्यनन्तरम्
- सर्वार्थसिद्धि १ २१, १२५. ७. सि. को २ पृ. ६०६ )