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________________ १२२ । [ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व . ते खल्वनादि कर्ममलीमसाः पंकसंपृक्त नीयवत्तदाकारेण परिणतत्वात्यंच. प्रत्रानगुणप्रधानत्वेनैवानुभूयंत इति ।'१ अन्यत्र प्रश्नोत्तर शैली में दृष्टांत तथा तर्क का सुन्दर प्रयोग करते हुए स्त्रात्मा में क्रिया के होने में विरोध है इसलिए आत्मा के स्वज्ञायकता कैसे घटित होती है ? इस प्रश्न का उत्तर एक असाधारण व्याख्याकार को प्रनिभा के प्रदर्शन के साथ दिया है- यथा- 'नन स्वात्मनि क्रिया विरोधात् कथ नामात्मपरिच्छेदकत्वम् । का हि नाम क्रिया ? की दशश्च विरोध; ? क्रिया हि नत्र बिरोधिनी समुत्तत्तिरूपा वा ज्ञप्ति रूपा वा । उत्पतिरूपा हि तावन्नक स्वस्मात्प्रजायत इत्याममाविरुद्धंव । ज्ञप्तिरूपायास्तु प्रकाशन क्रिययव प्रत्यवस्थितत्वाम्म तत्र विप्रनिषेचस्यावतारः । यथा ह प्रकाशकस्य परं प्रकाश्यगामा नन्न प्रकाशयतः स्वस्मिन् प्रकाश्ये न प्रकाशकान्तरं मयं स्वयमेव प्रकारानपिनायाः ममलामा । तथा परिच्छेदकस्यत्मनः परं परिच्छेद्यतामापन्न परिच्छिन्दतः स्वस्मिन् परिच्छेचे न परिच्छेद्यकान्तरं मृग्य, स्वयमेव परिच्छंदन क्रियायाः समुपलम्भान् । नम कुन आत्मनो द्रव्यज्ञानरूपत्वं द्रक्ष्याणां च आत्मज्ञेमरूपत्वं च ? परिणाम संवत्वात् । यतः स्खलु प्रात्मा द्रव्याणि च परिणामः १ पंचास्तिकाय गाथा ५३ की टीम:- निश्चय से जीव परभावों का अकर्ता होने से स्वभावों के कर्ता होते हैं और उन्हें अपने भावों को) करते हुए क्या वे अनादि अनन हैं ? क्या सादि अनत हैं ? क्या तदाकाररूप परिणत हैं ? क्या तदाकार रूप अपरिगत हैं ? ऐसी अाशंका उठातार यह बहा गया है- कि जीव यास्तव में सहज चतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से अनादि यांत है। ने ही औदायिक, झायोप शमिक और योगशमिक भावों से सादि सांत हैं 1 वे ही क्षायिकभाव से सादि अनंत हैं। "क्षायिक भाव सादि होने में सांत होगा ?" ऐसी प्रागंबा करना योग्य नहीं है। (कारण कि) बह वास्तव में उपाधि की निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ सिद्धभाव की भ्रांति, जीव का लद्भाव ही वे, और सद्भाव से जीव अनंत ही स्वीकार किये जाते हैं । तथा अनादिअनंत सहजचंतन्यलक्षण एक भाववाले उन्हें सादि सान और सादि अनंत मावान्तर घटित नहीं होते, ऐसा कह्ना योग्य तहीं है; (क्योंकि) व वास्तव में अनादि कर्म से मलिन बनते हुए कीचड़ रो सहित (सम्पर्कयुक्त) जल की भांति तदाकार रूप पारमत होने कारण पांच प्रधानगुणों से प्रधानतावाले ही अनुभव में आते हैं ।। ५३ ।।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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