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दार्शनिक विचार ]
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इसलिए सहकारी कारणरूप से दूसरों से दूसरों की गति क्रिया का कर्त्ता कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । किन्तु मछलियों को जिस प्रकार जल ग्राश्रय कारणमात्र है उसी प्रकार जीव पुद्गलों का प्राश्रयमात्र होने से वह धर्मद्रव्य भी गति में उदासीन निमित्त होता है ।" इस प्रकार निमित्त के मुख्यत: दो भेद किये गये हैं। संक्षेप में कहा जाय तो प्रक निमित्त त्रे निमित्त हैं जो अपने आप में क्रियाशील सक्रिय रह कर अन्य वस्तु के परिणमन में अनुकूल होते हैं तथा उदासीन निमित्त वे हैं जो अपने श्राप में किया रहित - निष्क्रिय रह कर अन्य वस्तु के परिणमन में अनुकूल रहते हैं ।
निमित्त कारण कार्य का नियामक नहीं होता :
निमित्त कारण कार्य का नियामक या कर्ता कदापि नहीं होता क्योंकि वह परद्रव्य के कार्यरूप परिणमन की शक्ति से रहित है। उसमें परद्रव्य रूप परिणमन करने की योग्यता ही नहीं होती । जिस वस्तु मैं स्वयं की परिणमन शक्ति या बोग्यता न हो, उसमें अन्य वस्तु योग्यता पंदा नहीं कर सकती । इसलिए निमित्त कारण कार्य का कर्ता या नियामक नहीं होना है। कार्य की कि दो में वन शक्ति या योग्यता ही होती हैं । अपनी ही योग्यता से प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमन का कर्ता है तथा जीव के रागादि भावों परिणामों) का निमित्तमात्र प्राप्त कर पुद्गल स्कंध स्वयं ही कर्मरूप में परिणमन करते हैं। ऐसा कथन अन्यत्र भी उपलब्ध होता है । इसमें निमित्त को बहिरंग साधनरूप
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"यथा हि गतिपरिणतः प्रभञ्जनो वैजन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलो क्यले न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गति परिणाममेव आयते । कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् । किन्तु सलिलमित्र मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकार मात्र नांदासीन एग प्रसरो भवति ।" पंचास्तिकाय, ग्रा. पद की टीका
न हि स्वतोऽसी शक्तिः कतु'भन्येन पार्यते । समयसार गा. ११८, ११. जीवतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरये ।
स्वव परिणमन्ने
पुमनाः कर्मभावेन ।। १२ ।। . सि. ।।
"जीवपरिणाममा बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मस्वपरिणमनशतियोगिनः पुद्गलस्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । - प्रबचनमार गा. १६० टीका ।