________________
पूर्व साहित्यिक परिस्थितियां ।
चलती रही। पश्चात् उक्त मौखिक श्रमणसाहित्य धारा ने लिखित रूप धारण किया । इस लिखित श्रमणसाहित्य धारा का विकास दो दष्टियों से होता रहा जिन्हें प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा द्वितीय श्रृतस्कंध के नाम से जाना जाता है। इनमें प्रथम श्रुतस्कन्ध की उत्पत्ति प्राचार्य धरसेन (ईस्वी ३८ से ६६ नक) द्वारा षट्खण्डागम के रूप में हुई। उन्होंने उक्त विद्या आचार्य पुष्पदन्त और मानाय भूलि को डिसाई, जिसे उक्त आचार्यय गल ने 'षट्खण्डागमसुत" नाम से प्राकृतभाषा में निबद्ध किया। उक्त षट्खण्डागम के प्रथमखण्ड को रचना प्राचार्य पुष्पदन्त ने (ईस्वो ६६ से १०६ के बीच की, शेष (दो से लेकर छह तक) पांच खण्डों के सूत्रों का प्रणयन आचार्य भूतबलि ने (ईस्वी ६६ से १५६ के बोच) किया । उक्त ग्रन्थ की कई टीकाएं रची गई । सर्वप्रथम टीका आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा (ईस्वी १२७ से १६६ के बोच) प्रारम्भ के तीन स्वण्डों पर रचो गई । कुन्दकुन्द कृत टीका का नाम "परिकर्म" था। दूसरी टीका की रचना प्राचार्य समन्तभद्रस्वामी ने (ई० द्वितीय सदी) इसके प्रथम पांच वण्डों पर रची । तीसरी टीका के कर्ता आचार्य शामकुण्ड (ई० तृतीय सदी) .. थे। चतुर्थ टीका आचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा (ई० ७६२ से ८२३ के बीच) बनाई गई । इसका नाम धवलाटीका है, जो ७२ हजार श्लोक प्रमाण अत्यंत गंभीर एवं विशाल है। तत्पश्चात् आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतकक्रवर्ती ( ई० सदी १०१८ से १०६८) ने उक्त षट्खण्डागम एवं कषायपाहुड़ का अध्ययन कर साररूप में गोम्मटसार, ल ब्धिसार, शपणासार, त्रिलोकसार की रचना की। उस पर प्राचार्य अभयचन्द्र द्वितोय (१३३३ से १३४३ ई० के बीच) ने “मन्दप्रबोधिनी" नामक प्रथम संस्कृत टीका रची। द्वितीय टीका केशबवर्णी कृत कन्नड़ भाषा में बनाई गई । तृतीय टीका नेमिचन्द्राचार्य चतुर्थ ( ई० १६ वीं सदी पूर्वार्ध ) ने सविस्तार लिखी । चौथी टीका पण्डिनप्रवर टोडरमलज़ो ने (वि. संवत् १७७६-७७ में) सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाम से बनाई जो ३४०६ मुद्रितपृष्ठों में अद्यावधि उपलब्ध है। इस प्रकार प्रथमश्रुतस्कंध को उत्सति एवं विकास परम्परा चली। इसमें आत्मा और कर्म के सम्बन्ध में सिद्धांतविषयक ज्ञान का विपुल भण्डार है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध को उत्पत्ति आचार्य गुणघर से हुई । उनका काल ( ईस्वी ५७ से १५६ ) है। उन्होंने कषायपाहड़ सुत्त नामक ग्रन्थ
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-४, पृ० ८१
२. बही, भाग-२, पृ० २४४