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[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व की रचना की । पश्चात् आचार्य आयभक्षु और नागहस्ती (ई० ४४५ से ५६० तक) ने इन सूत्रों का विस्तार किया। उसके बाद उनके शिष्य यनिवृषभाचार्य ने ( ई० ५४०-६०६) इसकी विशद टीका "चूर्णिसुत्त" नाम से को। इस टोका का विस्तार ६० हजार श्लोक प्रमाण है। इन्हीं चुणिसुत्तों के आधार पर उच्चारणाचार्य ने विस्तृत उच्चारणा लिखो। उक्त उच्चारणा के आधार पर आचार्य वप्पदेव (ई० ७६७ से ७६७) ने भी एक और संक्षिप्त उच्चारणा लिखी । पश्चात् आचार्य वीरसेन ने (ई० ७६२-८२३) इस ग्रन्थ पर २० हजार श्लोक प्रमाण “जयघवला" नामक टोका संस्कृत में लिखी। ये इस टीका को पूर्ण न कर सके, जिसे उनके शिष्य जिनसेनाचार्य (ई० ८००-८४३) ने ४० हजार श्लोक प्रमाण
और रचना करके उक्त टीका को पूर्ण किया। इस प्रकार जैनधर्म के विशाल वाङमय की सिद्धांतज्ञानधारा अंकुरित, अभिसिंचित एवं विकसित होती रही।
उक्त द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ज्ञान को गुरु परम्परा से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने (ई० प्रथम सदी) ने प्राप्त क्रिया, तथा उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचा स्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि ग्रन्थों की पाकृत गाथाओं में रचना की और श्रमणों की अध्यात्मज्ञानघारा को विशेष रूप से प्रवाहित किया। इस अध्यात्मधारा को क्रमशः प्राचार्य उमास्वामी (ई० दूसरी सदो), ताकि शिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्य (ई० तीसरी सदी), आचार्य पूज्यपाद ( ई० पांचवीं सदी), आचार्य योगीन्दु ( जोइन्दु ) देव (ई० छठवीं सदी) आचार्य जटासिंहनन्दि (जटाचार्य-ई० सातवीं सदी), गुणभद्राचार्य ( आत्मानुशासनकार) (ई० नवमी सदी पूर्षि ), आचार्य प्रमुतचन्द्र (ई० दसवीं सदी), प्राचार्य अमितगति प्रथम (ई० ६१५ से ६६८), अमितगति द्वितीय (ई० ६६३ से १०२१), प्राचार्य पद्मप्रभमलधारीदेव ( ई० ११४० से ११८५), मुनि नागसेन (ई. बारहवीं सदी), आचार्य जयसेन (ई० १२६२ से १३२३), प्राचार्य प्रभाचंद्र (ई० तेरहवीं सदी), बालचंद्र (ई. १३५०) इत्यादि आचार्यों तथा विद्वानों ने अध्यात्मरसप्रज्र टोकाओं तथा मौलिक कृतियों द्वारा यथासंभव आगे बढ़ाया । उपर्यत अध्यात्मधारा के विकास एवं प्रचार-प्रसार में आचार्य अमृतचन्द्र का असाधारण योगदान रहा है। जिस प्रकार तोथंकर महावीर के
१. जनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग-२, पृ० ४१