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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
होती है तथा जहाँ गाथा या पदगत रहस्य विषयक प्रानंदानुभूति का अतिरेक प्रगट करते हैं, वहाँ भाषा स्वयमेव पद्यमयी हो जाती है। इस प्रकार उन्हें गद्यपद्यमयी भाषाभिव्यक्ति द्वारा प्रात्मख्याति टीका में सर्वत्र अध्यात्मतरंगिणी प्रवाहित करने में असाधारण सफलता प्राप्त हुई है।
एक श्रेष्ठ भाषाविद् के रूप में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने संस्कृत भाषा को अनेक रूपों में प्रस्तुत किया है। वहीं उनकी भाषा अत्यन्त सरल, सुबोध तथा सर्वजनमाही रहती है तो कहीं पर अत्यन्त क्लिष्ट, दुर्गम तथा विद्वज्जन ग्राही होती है। इस तरह भाषाशैली के इन्हीं रूम परिवर्तनों के कारण वे कभी प्रौढ़तम गद्यकाध्यकार, तो कभी रससिद्ध अध्यात्म कवि तथा कभी उभयकाव्यकार - चम्पुकाव्यकार के रूप प्रादुर्भूत होते हैं। संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार होने के कारण हो उन्होंने उसे विभिन्न छन्दों, विभिन्न अलंकारों, विभिन्न रसों तथा व्याकरण विषयक प्रयोगों से संजोया है। एक शब्द को अनेक अर्थों तथा अनेक शब्दों को एक अर्थ में प्रयोग करने में वे दक्ष हैं। विभिन्न क्रियापदों व विभिन्न गणों की धातुओं का विभिन्न लकारों में प्रयोग, धातु के तद्धित, कृदंत तथा विभिन्न प्रत्ययांत प्रयोग, अनेक अध्ययों का पादपूरणार्थ प्रयोग, अनेक उपसर्गों का अर्थ परिबर्तनार्थ प्रयोग, अप्रयुक्त (अप्रचलित) शब्दों का प्रयोग इत्यादि विशेषताएं उनकी भाषाविज्ञता की स्पष्ट प्रमाण हैं । उदाहरण के लिए उनके कुछ व्याकरण सम्बन्धी प्रयोग इस प्रकार है
एक स्थल पर "प्रज्ञा द्वारा आत्मा को कैसे ग्रहण करना चाहिए ?" इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं—'यो हि नियत स्वलक्षणावलंबिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं,ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमानायांतोऽत्यंत मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मर्यव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह णामि । यत्किल गहाणामि तकिल चेतनक क्रियत्वादात्मनश्चेतय एव, चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, तयमानायंव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये । अथवा न चेतये, न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने घेतये, न चेतयमानं