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________________ व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] [ १४७ कभी कभी उनका गद्य कृत्रिम तथा क्लिष्ट सा प्रतीत होता है। विचारों की अभिव्यक्ति प्रवाहपूर्ण है । वे गद्यकार की अपेक्षा कवि अधिक थे । उनकी श्राध्यात्मिक जगत् पर सम्प्रभुता थी। उनकी विचाराभिव्यक्ति अत्यन्त प्रभावपूर्ण थी । उनकी भाषा ओजपूर्ण, रसपूर्ण अलंकार युक्त तथा अर्थवाही थी । अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व की प्रोढ़ना तथा भाषा प्रौढ़ता दोनों समकक्ष है । उनकी प्राकृतभाषा विज्ञता निःसंदेह सिद्ध है, क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य के प्राकृत ग्रन्थों के गूढ़ार्थों को संस्कृत भाषा के माध्यम से उद्घाटित करने में उन्होंने अद्वितीय सफलता तथा ख्याति प्राप्त को है । समयसार की आत्मरुप्रति टीका में उन्होंने पूर्वाचार्यों की कुछ प्राकृत गाथाओं को भी उदारत किया है। उन्होंने प्राकृत गाथाओं के एक-एक शब्द की व्याख्या सविस्तार करके उनमें निहित भाव को अत्यन्त सौष्ठव पूर्ण भाषा में प्रकट किया है। उनकी भाषा की सुष्ठुता एवं चारुता दर्शनीय हैं। उदाहरण के लिए यहाँ उनकी टीका का कुछ अंश प्रस्तुत है । इस अश में उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द के "दारहं प्रप्पणी सविहवेण" पद अर्थात् "आत्मा के निजवंभव से दिखाता हू का भाव स्पष्ट करते हुए लिखा है - 1 "इह किल सकलोद्भासिस्यात्पद मुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा, समस्त विपक्षक्षोदक्ष मानिनिस्तुषयुक्त्यवलम्ब नजन्मा निर्मल विज्ञानघनांतनिमग्नपरापरगुरु प्रसादी कृतशुद्धात्मतत्त्वानु शासनजन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्विता मंदसंविदात्मकस्य संवेदनजन्मा च यः कश्वनापि ममात्मनः स्व विभवस्तेन ममस्तेनाप्ययमेकत्व विभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्ध व्यवसायोऽस्मि "" इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र प्राकृत भाषा तथा उसमें अभिव्यक्त भावों पर असाधारण अधिकार रखते थे । संस्कृत भाषा तो उनके प्रौढ़ व्यक्तित्व की अनुबतिनी और उनके अंतराभिप्राय की प्रेरणा पर नाचने वाली थी। यह कारण है कि श्रात्मख्याति टीका में गद्य तथा पद्य दोनों काव्यविधाओं का सम्मिश्रण देखने को मिलता है । अमृतचन्द्र सर्वप्रथम गाथागत भावों को हृदयगत करते हैं पश्चात् अंतरंगानुभूति को सशक्त, सतर्क तथा सुन्दर भाषा में प्रगट करते हैं। जहाँ से गाथागत या पदनिहित मर्म का विश्लेषण करते हैं, वहाँ भाषा गद्यरूप में प्रवाहित १. समयसार गाथा ५ की टीका
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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