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________________ व्यक्तित्व तथा प्रभाव ] [ १४६ · 1 चेतये, किन्तु पर्व विशुद्धचिन्मात्र भावोऽस्मि ।" इस प्रकार अस्मद् तथा चेतमान पदों के षट्कारकरूप विकल्पों का निषेध कर अभेद चिन्मात्रभावरूप आत्मा को पकड़ाया। इसके पश्चात् इसी प्रकार की तुन्दर व्याकरण प्रयोग शैली में उक्त सामान्यचेतना को दर्शनमात्र एवं ज्ञानमात्र भाव रूप निरूपित करते हुए लिखा है- चेनावनत्रिप नतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव दृष्टत्व ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यतं पश्यामि पश्यते एव पश्यामि पश्यत एवं पश्यामि पश्यत्येव पश्यामि पश्यंतमेपयामि । अथवा न पश्यामि न पश्यन् पश्यामि न पश्यता पश्यासि न पश्यते पश्यामि न पश्यतः पश्यामि न पश्यति पश्यामि न पश्यतं पश्यामि किंतु सर्वविशुद्धो दृङमात्र भावाऽस्मि । अपि ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जानाम्येव जानन्नेव जानामि जानतेव जानामि जानते एव जानामि जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा न जानामि न जानन्, जानामि, न जानता जानामि न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानंतं जानामि, किंतु सर्व विशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि । * J " , P 7 1 एक "धातु' पद के प्रत्यय परिवर्तन से अनेक रूपों के प्रयोग में वे दक्ष थे । "कु" धातु के कर्म करोति, कार्यत्व, कुर्वाणः, कर्ता, क्रियमाणः , १. समयसार गाथा २१७ को टीका - ( अर्थ - - " नियत स्वलक्षण का अबलंबन करने वाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया जो वेतन आत्मा है वह यह में हैं, और अन्य स्वलक्षणों से लक्ष्य (जानने योग्य) जो ये शेष व्यवहाररूप भाव हैं वे सभी तकत्वरूपी व्यापक के व्याप्य नहीं होते, इसलिए मुझमे अत्यंत भिन्न हैं, प्रत मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही अपने में ही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ । श्रात्मा की चेतना ही एक क्रिया है इसलिए मैं " ग्रहण करता हूँ" । ( है ) प्रर्थात् में चेतता ही हैं, चेतता हुवा ही चेतता हूँ, चेतले हुये द्वारा ही चेतता हूँ, चतते हुये चेलते हुए 'से ही चेतता है, चेतते में ही चेतता हूँ, अथवा न तो चेतता हूँ, न चेतता हुधा चेतता हूँ, हूँ, न चेतते हुए के लिये चेतता हूँ, न चेतते हुए से चेतता हूँ, न चेतते हुए को चेतता हूँ, किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र भाव हूँ। २. समयसार गाया, २६८- २६६ की दोका ३. प्रवचनसार गाया, १०४ के लिए ही चेतता हूँ, चेतने को ही चेतता हूँ, न चेतते हुए के द्वारा चेतता चेतता है, न चेतवे ए में
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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