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ब्यक्तित्व तथा प्रभाव
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प्रचन्द्र नाकार के रूप में साहित्य रसिकों को समस्त प्रकार के काव्यों में नाटक सर्वाधिक रमणीय प्रतीत होता है।' रमणीयता का कारण है नाटक में विविध प्रकार के संविधानों का होना। जिस प्रकार विविध रंगों से खचित चित्र सहृदय दर्शकों के चित्त में रस का स्रोत पैदा करता है, उसी प्रकार नाटक भी वेशभूषा, नत्य-गान नेपथ्य आदि विविध संविधानों से दर्शक के हृदय को आनंदित एवं प्रभावित करता है। इसीलिए नाट्यशास्त्र में नाटक की प्रशंमा यह कह कर की गई है कि ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, योग अथवा कर्म नहीं है जिसे नाटक में न देखा जा सके। अतः भारतीय संस्कृत वाङमय में नाटक का विशेष महत्व है। नाटक के महत्व के कारण नाटककार का महत्व और भी बढ़ जाता है।
कुन्दकुन्द के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ समयप्राभत पर आवार्य अमृनचन्द्र ने "आत्मख्याति" टोका लिखी है, उसमें यथास्थान पद्यों का भी प्रयोग किया है। उन्होंने इस टीका एवं पद्यों की अभिव्यक्ति को नाटकीय शैली में प्रस्तत कर उसे नाटक का रूप दे दिया है। साथ ही अपनी उक्त टीकाकृति में नाटकीय तत्त्वों का समावेश भी किया है। इसलिए वे अपनी कृति को नाटकीय रूप प्रदान करने में सफल हुए हैं। प्रा. अमृतचन्द्र के साहित्यानशीलन से उनके प्रौढ़तम गद्य, रसानभूतिमय पद्य तथा रमणीय नाट्य साहित्य के दर्शन होते हैं। प्राचार्य अमृतचन्द्र को नाटककार के रूप में नाटयकला की कसौटी पर कसने के लिए नाटक के स्वरूप तथा उसका पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते हैं । अवस्था से तात्पर्य है पात्रों की चालढाल, वेशभूषा, आलाप-प्रलाप आदि । वस्तु, नेता तथा रसाभिव्यक्ति के आधार पर नाटकों में भेद किए जाते हैं। नाटक के प्रारम्भ में रंगभूमि रची जाती है । वहाँ दर्शक, नायक तथा सभासदों की
१. काव्येषु नाटकं रम्यम्, (दशरूपक प्रस्तावना पृष्ठ ६) २. संस्कृत साहित्य का इतिहास, डॉ० बलदेव प्रसाद उपाध्याय, संस्करण १९६७
पृष्ठ ४४५ ३. न तज्ज्ञानं न तच्छिल्प न सा विद्या न सा कला।
न' स योगो न तत्कर्म नादयेऽस्मिन् न दृश्यते ।। नाट्यशास्त्र १/१४ ४. दशरूपकम्, प्रथम प्रकाश, पच ऋकांक ७ । ५. दशरूपकम्, प्रथम प्रकाण, पद्य क्रमांक ११