________________
८० ।
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व
सभा होती है और नृत्य करने वाले होते हैं, जो विविध प्रकार के स्वांग प्रस्तुत करते हैं । शृंगारादि आठ रसों को प्रदर्शित करते हैं । ये आठ रस हैं - शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, बीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत । ये सभी लौकिक रस हैं परन्तु नववां रस शांतरस है जो अलौकिक रस है। उक्त प्रारम्भिक आठ रसों का अधिकार नाटक या नृत्य में होता है, परम शांतरस का नृत्य में अधिकार नहीं होता। सामान्यतया रस का स्वरूप है ज्ञान में ज्ञय का झलकना तथा ज्ञय में ज्ञान का तन्मय (तदाकार) होना।' अथवा काव्य के पठन, श्रवण या दर्शन से जिस से जिस आनन्द का अनुभव होता है उसे भी रस कहते हैं। नाटक में एक प्रमख रस होता है जिसका परिपाक एवं चरमोत्कर्ष नाटकान्त में पाया जाता है। यह प्रमुख रस अंगभूत रस कहलाता है तथा अन्य रसों की अभिव्यक्ति अंगीभूत रसों के रूप में की जाती है ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने समयप्राभूत की टोका "आत्मख्याति" को नाटकीय शैली में नाटकीय तत्त्वों का यथास्थान' समावेश करते हुए प्रस्तुत किया है । उन्होंने जीवतत्त्व वी सांसारिक अवस्थाओं का पात्राभिनय द्वारा अनुकरण किया है। वे अवस्थाएँ हैं -कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आरब, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष तथा सर्वरिशुद्धज्ञान 1 टीकाकार ने प्रत्येक अवस्था को एक स्वांग के रूप में प्रस्तुत किया है। इस नाटक की कथावस्तु मुख्य रूप से शुद्धात्मा का प्रकाशन करना है। इसे हम अधिकारिक कथावस्तु कह सकते हैं तथा गौणरूप से नवतत्त्वों का और कर्ता कर्म का स्वरूप प्रदर्शन करना है, जिसे प्रासंगिक कथावस्तु कह सकते हैं। नवतत्त्वों के वर्णन में शुद्धारमा ही सर्वत्र उपादेय एवं व्याप्त रहता है।" "ज्ञानज्योति" अथवा सम्यम्झान इस नाटक का नायक है। वह नायक परमउदात्त और अत्यन्त धीर है। वह समस्त लोकालोक को
१. समयमाभृत, प्रास्मख्याति टीका, पं. जयनंदजी (अनुवादक) पृष्ठ ६.३ (फलटण
२४५५ वी से.) २. देशरूपकम्, प्रस्तावना पृष्ठ ३५ ३. समयमाभृत, पं. जयचंदजी (फलटण) पृष्ठ ६३ ४. "तावत् समय एवाभिधीयते" समयसार, गाथा २ (प्रात्मख्याति टीका) पृष्ठ ७ ५. "तन्मुक्त्वा नक्तत्वसंततिमिमामारमायमेकोऽस्तु नः ।
आत्मख्याति टीका गाथा १२, कलश क्रमांक ६