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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
स्ततरे तूपभोगनि पित्ताः । यतरे बंध निमित्तास्ततरे रागद्बषमोहायाः यतरे तूपभोगनिमित्त स्त तरे सुखदुःखाद्याः । अथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः नानाद्रव्यस्य भावत्वेन टंकोत्कीर्णं कज्ञायकभावस्वभावस्य तस्यतत्प्रतिषेधत्वात ।
स्वागता छंद शानिनो न हि परिग्रहभावं, कर्म रागरस रिक्ततयति ।
रंगय किन रकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहिल उतीह ।। ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात, सर्व रागरस वर्जनशील: ।
लिप्यते सकलकर्मभिरेष: कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ॥ इस तरह उन उदाहरणों से अमृतचन्द्र की सरस, आलंकारिक तथा अध्यात्म र सभरित चम्पू शैली का भलीभांति परिचय मिलता है, अतः उन्हें हम गशपद्य काव्य कार के साथ ही चग्गूकाव्यकार भी वाह सकते हैं। उनके ये तीनों अद्वितीय असाधारण साहित्यिक पहलू अमृतचन्द्र के व्यक्तित्व के काव्यकार के पहलू को उजागर करते हैं। वे सिद्धहस्त प्रौढ़ गद्य लेखक, रससिद्ध पद्यप्रोता तथा आकर्षक चम्पूकाट्यकार के रूप में अपनी कृतियों में प्रकाशमान है।
१. समयसार गाथा २१७ की दीकाः-''इस लोक में जो अध्यवसान के उदय हैं
वे कितने ही तो संसार सम्बन्धी हैं और कितने ही शरीर सम्बन्धी हैं। उनमें जितने संगार सम्बन्धी है, उसने बन्ध के निमित्त है और जितने शरीर संबंधी हैं उतने उपभोग के निमित्त हैं । जिसने बन्ध के निमित्त हैं, उत्तने तो रामद्वेष. मोह धादि हैं और जितने उपभोग के निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं। इन सभी में ज्ञानी के राग नहीं है, क्योंकि वे सभी नाना द्रव्यों के स्वभाव है
इसलिए टंकोंकीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभाव वाले ज्ञानी के उनका निषेध है। २. (स्वागता छंदों का ) अर्थ- "राग के रप से शून्य होने को कारण ज्ञानी की
कोई भी किया ममत्व परिणाम को प्राप्त नहीं होती, जिस प्रकार लोध और फिटकरी से कषायला न किया वस्त्र, अन्य रंग के संयोग को स्वीकार करने पर 'मी; बह रंग बाहिर ही बाहिर बना रहता है अर्थात वस्त्र को रंजित नहीं करता ॥ १४ ॥" " कि ज्ञानीपुरुष अपने स्वभावरस से ही संपूर्ण रागरसों का वर्जक (निषेधक) है अतः कर्मों के बीच पड़ा हुआ भी यह ज्ञानी समस्त कर्मों से लिप्त नहीं होता ।. १४६ ।।" समयसारकलश