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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
त्योदित विशददृशिशप्ति ज्योतिरनंतधर्माधिरूढ़े कधमित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रम प्रवृत्त विचित्र भाव स्वभावत्वादुत्संगितगुण पर्यायःस्वपराकारावभासन समर्थत्वादुपात्तवैश्वरूयेकरूपः प्रतिविशिष्टावगाह गतिस्थितिवर्त्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारण चिपतास्वभावसद्भावाच्चाकाश धर्माधिकाल पुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंत मनं तद्रव्य संकरेपि स्वरूप प्रच्यवना कोत्कीर्ण चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः । "
इसी तरह अन्यमत खण्डनार्थ न्यायशैली में प्रयुक्त विभिन्न दोषों, आपत्तियों तथा प्रसंगों का उल्लेख टीकाओं में सर्वत्र मिलता है । उनमें कुछ के नाम इस प्रकार है: - संकरादिदोषापत्तिः, विसंवादापत्ति', चेतनस्याचेतनापत्ति इतरेतराश्रयदोष अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, प्रसंभवदोष * पुनरुक्तिदोष, अनवस्थादोष * भाव्यभावक संकरदोष, ज्ञेयज्ञायक संकरदोष, जीव वा पुद्गल के एकत्व का प्रसंग', द्रव्य के नाश का प्रसंग, नित्यकर्तृत्व का प्रसंग, तन्मयता का प्रसंग" पर का स्वामी बनने से जीवपने का प्रसंग १३, चेतन के अभाव का प्रसंग १३, अनैकांतिक हेत्वाभास १४ इत्यादि ।
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इसके अतिरिक्त वस्तु स्वरूप की सिद्धि हेतु विभिन्न न्यायों का प्रयोग भी उनकी कृतियों में मिलता है । उदाहरण के लिए एक स्थल पर "स्वर्णमुट्ठी न्याय" का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं- "यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यंतमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथंचनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्त विस्मृतचामी
१. समयसार गाथा २ की आत्मरुयाति टीका
२. वही गाथा २६८-२६६ की टीका
३. वही गाथा ७० कीं टीका ४. वहीं, गाथा ६६ की टीका तथा कलश नं. ४२ और ४०३ गाया की
टीका भी
५. वही, गाथा २२६ से २३६ की टीका अथवा कलश १५३ से १६० तक व ७०
से ७६ तक
६. बद्दी, गाथा २१६ को टीन
८. वहीं, गाथा ३१ की टीका १०. वही गाथा ६६ को टीवन १२. वहो, गाथा २०८ की टीका १४. वहीं, गाथा २६५ की टोका
७.
वहीं, गाथा ३२ की टोका
६.
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वही गाथा ६२ की टीका, ११. वही, गाथा १०० को टीका १३. वही, गाया २६९ की टीका