________________
५०४ ।
सल्लेखना का स्वरूप:
अवश्य होने वाले मरण के समय के पूर्व से हो काय तथा कषाय को क्षीण करना लेखना है । इसमें रागादि विभावों का अभाव होग से आत्मघात का दोष भी नहीं है 1 आत्मघाती तो वह है जो कषायाविष्ट होकर श्वारा निरोध तथा जल, अग्नि, विष शस्त्रादि से अपने प्राणों को पृथक करता है। जिनोक्त सल्लेखना या समाधिमरण तो कषायों की क्षोणता करने वाली तथा अहिंसा की सिद्धि करने वाली होने से अवश्य धारण करने योग्य है ।
! श्राचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
उपर्युक्त सम्यग्दर्शन. १२ व्रत, तथा सल्लेखना में दोष पैदा करने वाने प्रत्येक के पांच पांच प्रतिचार भी कहे हैं । उनके त्याग से निर्दोष परिपूर्ण श्रावकाचार पालन होता है ।
इस प्रकार उपरोक्त समस्त प्रतिचारों का त्याग करके श्रावकाचार का परिपूर्ण निर्दोष पालन करने बाला द्यात्मा शीघ्र ही अन्यकाल में पुरुष के प्रयोजन - मोक्ष की सिद्धि करता है । इस तरह प्राचार्य अमृतचन्द्र द्वारा वॉगत मुनि - प्राचार तथा श्रावकाचार, जैनाचार्य परम्परा में समंतभद्र के बाद सर्वाधिक प्रमाणिक माना गया है, तथा व्यापकता से प्रचलित हुआ है, बाद के सभी श्रावकाचार विषयक निरूपण उपरोक्त विचारों पर ही आधारित है ।
कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकल विषय विषयात्मा । परमानन्द निमग्नो ज्ञानमयो नम्बति
पु. सि. १७७-१७९
श्रन्वयार्थः -- कृतकृत्य, समस्त पदार्थ जिनके विषय हैं अर्थात् सर्व पदार्थों के ज्ञाता विषयानन्द से रहित ज्ञानानन्द में अतिशय मग्न ज्ञानमय ज्योतिरूप मुक्तात्मा सर्वोच्च मोक्षपद में निरन्तर ही आनन्दरूप से विराजमान हैं।
श्राचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
सदैव ।। २२४||
JAAJ