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कृतियाँ ]
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से प्रकाशक । प्रवचनसार की टीका की प्रौढ़ता, प्रांबलता तथा निरूपण शैली देख कर "दीपिका" के स्थान पर प्रदीपिका शब्द का प्रयोग अधिक सार्थक, स्वाभाविक तथा समुचित प्रतीत होता है । टीकाकार ने मंगलाचरण में "प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्ति' लिखा है तथा टीका के अन्त में "इतिगदितमनीचस्तत्त्वं' अर्थात् इस प्रकार अमंदतथा-प्रकर्षरूप से तत्त्व निरूपित किया है - इत्यादि उल्लेखों से भी तत्वप्रदीपिकावृत्तिः शब्द की सार्थकता स्पष्ट होती है। दूसरे -- मूलग्रन्थ के नाम में "प्र" उप. खर्ग प्रयुक्त होकर प्रवचनसार पद का प्रयोग हुअा हैं, तदनुरूप टोका भी "प्र" उपसर्ग यक्त "दीपिका" होना अर्थात् "प्रदीपिका" पद उपयुक्त प्रतीत होता है । ६० केलाशनन्द्र शास्त्री ने प्रवचनसार की टीका का नाम "तत्त्वदीपिका" तथा पंचास्तिकाय की टीका का नाम "तत्त्वप्रदीपिका" लिखा है । उक्त उल्लेख विचारणीय है ।
प्रवचनमार में उसके नामानुसार प्रवचन का सार अर्थात् जिनेन्द्र को दिव्यध्वनि का सार संगृहीत है । समयसार में शुद्धात्मदर्शन प्रधान निरूपण है तथा प्रवचनसार में ज्ञान प्रधान कथन है। इस टोका में अमृतचन्द्र की दार्शनिक प्रौढ़ना, सैद्धांतिक विद्वत्ता, विलक्षण तर्क शक्ति, गम्भीर तत्वज्ञान तथा अध्यात्म रसिकता के दर्शन होते हैं। समग्र टीका में प्रमुतत्रन्द्र के प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा समासबहुल प्रौढ़, गम्भीर व ललित गद्य शैली की अनुपम छटा के दर्शन होते हैं । टीकाकार ने अपनी कृति का लक्ष्य स्पष्टतः घोषित करते हुये लिखा है कि परमानंद रूपी सूचारस के पिपासु भव्यजनों के कल्याणार्थ, तत्व को प्रकट करने वाली टीका रची जा रही है। टीकाकार ने निर्वाण प्राप्ति का साक्षात् कारणरूप वीतराग चारित्र की प्राप्ति की भावना प्रगट की है। समग्र कृति अमृतचन्द्र के ज्ञान वैभव से अनुप्राणित तथा नय, प्रमाण, अकाटय यक्तियों तथा अनभूत उदाहरणों से सुसज्जित है । यद्यपि संपूर्ण टीका सालंकृत संस्कृत मद्य शैली में है तथापि कहीं-कहीं अमृप्तचन्द्र का कवित्व
१. प्रवनगार, नत्वप्रदीपिका वृत्ति, पद्य नं। ३ २. वही, पद्य - २१ ३. जैन साहित्य का इतिहाग, भाग द्वितीय, पाष्ठ १७३ । ४. परमानंदसुधारन पिसिनानां हिताय भव्यानाम् ।
भियत प्रवटिततत्त्वा प्रवचनमारस्व वृत्तिरिया ॥(प्रवचनसार टीका, पद्य ३)