________________
८२ ]
। आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ स्त्र
आत्मा, विभ्रमरूपी चादर को समूलतया डुबोकर, स्वयं सर्वा गरूप से प्रगट हुआ है। इसलिए अब समस्तलोक इसके शांतरस में एक साथ मग्न हो जाओ, वह शांतरस समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है।' इसप्रकार उक्त नाटक में शांतरस को प्रमुख रूप से रसाभिव्यक्ति हुई है। विशेष इतना है कि सांसारिक (लौकिक) नाटकों में ये रस जड़त्व को लिए होते हैं, परन्तु इस समयसार कलश टीका में ये रस आध्यात्मिकता से ओतप्रोत हैं। ये रस अात्मा के विकास को पूर्णता प्रदान करने में समर्थ हैं।
__"टीकाकार ने आरम्भ की ३८ गाथाओं की टीका को रंगभूमि स्थल के रूप में प्रस्तुत किया है। वहाँ नाटक देखने वाले सम्यग्दृष्टि दर्शक हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि पुरुषों को सभा है, । नृत्य करने वाले जीव और अजोत्र पदार्थ हैं। उन दोनों के एकपने रूप तथा कर्ताकर्मपने आदि रूप स्वांग है । वे परस्पर आठ रमरूप होकर परिणमते हैं, वही उनका नत्य है। यहां सम्माधि जोर सी एन स्थांग | पंपांधता जानकर शांतरस में निमग्न रहता है। अज्ञानी उनमें यथार्थपना मान लीन हो जाते हैं। उन्हें भी यथार्थ ज्ञान कराकर शांतारस में लीन कराकर सम्यग्दष्टि बनाते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने विश्व के रंगमंच पर नवतत्त्वों का स्वांग दिखलाया है। परमशांतरस की पार्श्वभूमि पर नबतत्त्वों के नाट्य में नवरसों का आविष्कार अपूर्व एवं अलौकिक है, क्योंकि वैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता ।५ आचार्य अमृतचन्द्र की कृतियों के विशिष्ट अध्येता डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने उनको टोकाकृतियों को नाटकीय शैली का समर्थन करते हआ लिखा है-"यद्यपि पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा समयसार को सामान्यतया नाटकत्रयी पुकारा जाता है, परन्तु वास्तव
१, मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका, आलोकमुच्छल ति शांतरसे समस्ताः । पाप्लान्य विभ्रम तिरस्करिणी भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंधुः ।।
समयसार कलश क्रमांक ३२ २. अमृतज्योति, प्रस्तावना, नानकचंद जैन-एडवोकेट रोहतक, १९६१ ३, """करत न होय तिन्हको तमासगीर है।" समयसारनाटक, पृष्ठ ७८ ४. समयप्राभूत, प्रात्मख्याति टीका अनुवादक पं. जयचंद जी छाबड़ा (फलटण रो
प्रकाशित दी. नि. सं० २४५ पृष्ठ ६३-६४) ५. प्राचार्य शांतिसागर जन्मशताब्दी स्मृतिग्रन्थ, द्वितीय भाग पूरुठ २६