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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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सालङ्कार क्लिष्ट पदयोजना- "शुककुलदलित डिमीफलवाद्रीकृत तर तिचपलक पिकम्पितकंकोल च्युतवल्लव फलशबलं रनवरत निपचित कुसुमरेणु पांसुः पथिकजन र चितलब गपल्ल व संस्तरं रतिकठोर नालिके रकेतकरीरकुल परिगत प्रान्तस्ताम्बूली लताबनगखण्डमण्डितैर्वनलक्ष्मीवामभुवनैरिव विराजिता लतामण्डपैः । १
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" रजक शिलातलस्फाल्यमान विमलसलिला प्लुत विहितोषपरिष्वन्ड गमलिनवासस इव मनाङ मनाविशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावादर्शनज्ञानचारित्र समाहितत्वरूपे विश्रांतसकल क्रियाकाण्ड डम्बर निस्तरंग परम चैतन्यशालिनी निर्भरानन्दमालिनी भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमाश्रयन्नः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः परमवीतरागभावमधिगम्य, साक्षान्मोक्षमनुभवन्तीति । *
इस प्रकार उपयुक्त उदाहरणों से आचार्य अमृतचन्द्र का अद्वितीय व्याख्याकार का रूप प्रस्पष्ट हो जाता है जो उनके असाधारण व्यक्तित्व का एक और अभिन्न अंग है ।
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श्राचार्य श्रमूलचन्द्र तार्किक तथा नैयायिक के रूप में- प्राचार्य अमृतचन्द्र के बहुमुखी व्यक्तित्व का एक रूप तार्किक तथा नैयायिक भी है । वे उच्चकोटि के दार्शनिक विद्वान् तथा सफलतम व्याख्याता होने के साथ ही असाधारण तर्कशक्ति सम्पन्न थे। उनके तर्क अनूठे थे तथा न्याय अखण्डित था। उनकी समस्त कृतियों में उनकी विलक्षण तर्कशक्ति प्रस्फुटित हुई है । समयसार की आत्मख्याति टीका में उन्होंने स्वयं टीका के आरम्भ में इस बात की घोषणा की है कि वे अपने समस्त वैभव के साथ एकत्वविभक्त भात्मा का दिग्दर्शन कराते हैं। उनके वैभव के जन्म का एक आधार उनकी निर्वाध युक्तियां भी हैं। उनकी युक्तियां समस्त एकांत पक्षों को निराकृत करने में समर्थ हैं। उनके तर्क निर्दोष तथा सबल हैं। तर्कों के द्वारा वे विखष्ट, दुर्गम तथा दुर्बोध दार्शनिक सिद्धांतों की सिद्धि करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी तर्कशक्ति तथा न्यायप्रतिभा
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१. कादम्बरी, पृष्ठ ३८
२. पंचास्तिकाय गाथा १७२ टीका, पृष्ठ २६०-२६१
३. "समस्त विपक्षशोदक्षमा ति निस्तुषयुक्त्यवलम्बनजन्मा...........यः कश्चनापि ममात्मनः स्वविभवस्तेन समस्तेनाप्ययमेकत्व विभक्तमात्मानं बद्ध व्यवसायोऽस्मि ।" ( समयसार गाथा ५ की टीका)
दर्णयेहमिति