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[ आर्य 31 . तिला एवं कर्तृ स्त्र पंचास्तिकाय ग्रंथ की टीका में विशेषरूप में विकसित और अभिव्यक्त हुई है। प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टोका में अमृतचन्द्र की ताकिक और नैयायिक शक्ति का परिपाक हआ है। सम्पूर्ण टीकाकृति हेतुपरक, तर्कसापेक्ष शैली से सुसज्जित है। उदाहरण के लिए आकाश द्रवप के प्रदेश की सिद्धि हेतु वे बड़े ही अनोखे व अद्वितीय तर्क प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि आकाश का एक परमाणु से व्याप्य क्षेत्र प्राकाशप्रदेश है जो शेष पांचों द्रव्यों के प्रदेशों तथा सूक्षमता रूप में परिणत स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है ।
आकाश का अंश न मानने वाले के समक्ष वे सुन्दर तर्क प्रस्तुत कर कहते हैं कि आकाश में दो अंगलियां फैजाकर बताइये कि उन अंगुलियों का क्षेत्र एक है या भिन्न हैं ? यदि एक क्षेत्र माना जावे तो दो में से एक अंश का अभाव हो जायेगा, तथा दो से अधिक अंशों का भी प्रभाव सम्भव हो जाने से प्राकाश परमाण की तरह प्रदेशमात्र सिद्ध होगा, जो सम्भव नहीं है। और यदि आकाश को भिन्न अंशों वाला अविभागी एक द्रक्ष्य माना जावे तो अविभागी एक द्रव्य में अंशकलाना फलित होती है। यदि दो अंगलियों के भिन्न (अनेक) क्षेत्र माने जावें तो प्रश्न होगा कि आकाश के खण्डखण्ड रूप में अनेक दृव्य हैं इसलिए दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं ? परन्तु इनमें प्रथम तक सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा होने से आकाश में अनंतद्रव्यपने का प्रसंग प्रा
१. प्रवचनसार गाथा १४५ की टीका - पाकाशस्यकाव्याप्योंशः किलाकाश
प्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपंचद्रव्यप्रदेशानां परमसोक्षम्यपरिणतानन्तपरमाणस्कंधानां चावकाशदानसगर्गः । अस्ति नाविभागकद्रव्यत्नेश कल्पनमाकाशस्य, मपामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्त': । यदि पुनराका शस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ गुलीयुगले नभसि प्रसार्य निरूप्यता किमेक क्षेत्रं किमाने का ? एक चेत किमभिन्नांशाविभागक प्रध्यत्वेन कि वा भिनाशाविभागक दृश्यस्वेन । अभिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन चेन येनांशेन कस्या भङ्ग गुले क्षेत्र तेनांशेनेत रस्या इत्यन्तरांशाभावः । एवंद वाद्यशानामभावादावाशस्य परमाणोरिव प्रदेशमात्रस्वम् । भिन्नांशात्रिभागेरु द्रव्यत्वेन चेत् अविभागकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् । अनेक चेत कि विभागानेकद्रव्यत्वेन किंवा विभागकद्रव्य त्वेन । सविभागानेकद्रव्यत्वेन चेत् एकद्रव्यस्याकाशस्यानन्तद्रव्यत्वं, अविभाग कद्रव्यत्वेन चेत् अविभागकद्रभ्यस्यांशकल्पनमायातम् ।