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कृतियाँ ।
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हैं, वे बुद्धिव्यापार रहित हैं ।। स्पर्शन एवं रसना इंद्रियवाले शंख, सीप, केन्या आदि दो इंद्रिय जीव हैं। उक्त दो के अतिरिक्त प्राणेन्द्रिय सहित इंद्रियवाले बिच्छू, खटमल, गू, चीटी आदि तीन इंद्रिय जीव हैं। उक्त तीन को साथ चक्षु इंद्रिय युक्त मछर, मक्खी, भौरा, पतंगे प्रादि चार इंद्रिय जीव हैं। स्पर्शन, रसना, घ्रा, चक्षु और कर्ण इन पांच सहित देव, नारकी, मनुष्य व तिर्यंच जो कि जलचारी, धलचारी तथा नभचारी होते हैं, वे बलवान पंचेन्द्रिय जीव हैं । पंचेन्द्रियों में कुछ जीव मन सहित तथा कुछ मन रहित होते हैं । एके न्द्रिय गे चार इंद्रिय तक मन रहित ही होते हैं। देवों के चार निकाय, मनुष्यों के भोगभूमिज व कर्मभूमिज दो भेद, तिर्यचों के अनेक प्रकार तथा नारकियों के पृथ्वियों के भेदानुसार भेद होते हैं । गति तथा आयुनामकर्म के उदय से प्राप्त देव मनुष्य तिर्यंच तथा नरक पर्यायें आत्मस्वभावभुत नहीं हैं, अनात्मस्वभावभुत हैं । इसप्रकार उपरोक्त भेदवाले शरीर में प्रवर्तने वाले देह सहित संसारी जीव हैं और देह रहित सिद्ध जीव हैं। संसारी जीवों में भय तथा अभय ऐसे दो भेद भी होते हैं।' अपाच्य मूग की भांति शुद्धात्मस्वरूप की उपलब्धि को शक्ति रहित अभव्यजीव हैं। आगे यह स्पष्ट किया है कि उपरोक्त भेदों द्वारा इंद्रियादि की अपेक्षा जीव संज्ञा कही, उसे व्यवहार कथन जानना, उसे परमार्थ से जीव न मानना 1 परमार्थ से जीव तो चैतन्यस्वभाव लक्षणवाले ही होते हैं, इंद्रियादि तो जड़ हैं। जीवद्रव्य को छोड़कर शेष पांच द्रव्यों में न पाई जानेवाली, चेतन्य के विवर्तरूा संकल्प की उत्पत्ति के कारण सूख की अभिलाषारूप क्रिया, दुःखरूप उग की क्रिया, हित-अहित की रचनारूप क्रिया, इत्यादि क्रियाओं का कर्ता जीव ही है । प्रागे जीवव्याख्यान का उपसंहार तथा अजीवव्याख्यान के प्रारम्भ की सूचना देते हुए लिखा है कि इस तरह विभिन्न भेदों द्वारा जीव को जानकर अचेतन्यलक्षणवाले अजीव को भी भेद विज्ञान की प्रसिद्धि के लिए जानना चाहिये ।
तत्पश्चात अजीव द्रव्य का व्याख्यान नामक अधिकार में माकाश, काल, पुद्गल, धर्म तथा अधर्म को जीव के गुणों से भिन्न होने से अचेतनपना कहा है | अचेतनपन का एक हेतु यह भी बताया है कि अाकाशादि को
१. ममयन्यापा. गा. १०८ से ११३ तक । २. वहीं, चा. ११४ मे १२० । १. मही, गा. १२१ त १२३ 1 ।