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________________ । आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ सुख-दुःखादि का ज्ञान, हित का प्रयारा तथा अहित का भय आदि चतम्या । परिणामों की प्राणि हैदी साल में संबो में भी भेस्वरूप कर कथन किया है । यह जीव-अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मात्र 'की प्रसिद्धि के लिए प्रतिपादित किया गया है ।' यहाँ अजीव द्रव्याधिकारी भी समाप्त होता है। आगे सात बिशेषरूप पदार्थों के कथन के पूर्व उपोद्घात द्वारा यो 'मूलपदार्थों के संयोगी भावों से निष्पन्न होनेवाले जीवकर्म तथा पुद्गल की। चक्र का वर्णन किया है । उक्त चक्र में संसारी जीव के अनादि कर्धबंध की | उपाधि के निमित्त से स्निग्ध परिणाम होता है, उस परिणाम के निमित्त से पुद्गल रूप द्रव्यकर्म, उनके निमित्त से नर-नारकादि पर्यायों में गमन, उक्त गतियों की प्राप्ति से देह, देह हे इंद्रियाँ, इंद्रियों से विषयग्रहण, विषयग्रहण | से राग-द्वेष, राग-द्वेष से स्निग्ध परिणाम होता है तथा उपरोक्त चरा चलता रहता है । आगे पुण्य-पापाधिकार का निम्पण किया है । इसमें पुण्य-पाप के | योग्य भावों का स्वरूप नाथन किया है । यहाँ प्रशत राग तथा चित्तप्रसाद को शुभपरिणाम और अप्रशस्त राग तथा मोह-पादि को अशुभपरिणाम बताया है । शुभपरिणाम पुग्ध है पीर अशुभारिणाम पाप है । कर्म के फल सुख-दुःख के कारणभूत मूर्तविगय हैं, वे विषय नियम से मूर्त इंद्रियों द्वारा जीव भोगता है. इसलिए कर्म के मुतपने का अनुमान होता है । जिसप्रकार चूहे का विष मूर्त है. उसका फल सूजन-जुम्बारादि भी मूर्त है: उसी प्रकार कर्म भी मूर्त हैं, उनके फल भी मूर्ना हैं । आगे मूर्तकमों का मूर्त से तथा जीव । और कर्मों का मूर्त-अमूर्त म्हाप से बंध का प्रकार समभाया है। इसके बाद प्रास्रबदार्थ अधिकार प्रारम्भ होता है। प्रथम ही पुण्यात्रव का रवग्टः। लिखते हुए प्रशस्तराग, अनुकम्पापरिणति और चित्त ! की अकषता से जीव को द्रश्य पुण्यात होता ह। यहाँ प्रत्येक का स्वरूप स्पष्ट करते हए लिखा है कि अर्हत. सिद्ध तथा साधुओं में भक्ति, व्यवहार धर्म क्रियाओं के अनुष्ठान में भावनाप्रधान चेष्टा और गुरुपों का रसिकरूप से अनुगमन करना प्रशस्त राग है। क्योकि उसका विषय प्रशस्त होता है। १. समाज्या, गा. ५२४ स १२७ तक । २. वही, गा. १२८ । ३. यही, गा. १२६ ११४ नक।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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