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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
मुनि का स्वरूप :
जो इंद्रिय विषयों की प्राशा से रहित हैं, छकाय के जीवों के घातरूप प्रारम्भ से रहित हैं, चौदह प्रकार के अंतरंग तथा दश प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से रहित हैं, तथा जो सदा ज्ञान और ध्यान में तथा तप में अनुरक्त हैं, वे साधु - तपस्वी प्रशंसनीय हैं। धवलाकार प्राचार्य वीरसेन ने साधु का लक्षण सर्वसाधारण से विलक्षण ही बताया है। वे लिखते हैं कि जो अनंतजानादि रूप शुद्धात्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, वे साधु हैं । जो सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, 'पशु के समान निरीह गोचरीवृत्ति करने बाले, पवन के समान निःसंग अथवा सर्वत्र बिना काबट बिचरण करने वाले, सुर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्त्वों के प्रकाशक, सागर के समान गंभीर, मेरू के समान परिषह व उपसर्गों के बीच निश्चल या अडिग रहन वाले, चन्द्रमा के समान शांतिप्रदायक, मणि के समान मा पुजयुक्त, पृथ्वी के समान सर्व बाधाएं सहन करने वाले, सर्प के समान परिनिर्मित अनियत प्राधय वसतिका आदि में निवास करने वाले, आकाश के समान लिरावलम्बी, निलप, सदाकाल मोक्ष का अन्वेषण करने वाले साधु होते हैं। वे पांच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित रहते हैं। अठारह हजार शील के भदों को पालन करते हैं तथा चौरासो हजार उत्तर गुणों को धारण करते हैं, ऐसे माधु परमेष्ठी होते हैं। प्राचार्थ अमृतचन्द्र ने भी साधु - मुनि का स्वरूप तो भलीभांति स्पष्ट किया ही है, साथ ही मुनिधर्म पर सर्वप्रकार से सविस्तार प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि रत्नत्रय रूप पदवी का अनुसरण करने वाले मुनियों की वृत्ति पापक्रिया मिश्रित प्राचारों से सर्वया परा-मुख होती है। वे सर्वथा उदासीन रूप तथा लोक से विलक्षण प्रकार फी वृत्ति के धारक
१. विषयागावागातीतो निरारम्भोऽप रेग्रहः ।
ज्ञानम्माननपो रक्तस्तपत्री से प्रशस्यते || १० || र. क. भा ।। २. "पो और मन्द गाहणं" अनतजानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति सानमः ।
धबला खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, गाथा ३३ पृष्ठ ५२ महि गय बगह निय पशु मारूद सूखिहि मंदरिदु मणीं । विदि उगम्बर सरिला परम पर विमरगया साहूं ॥३३ ।।