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________________ सप्तम् अध्याय धार्मिक विचार यह हा का कि पर्शका सम्बन्ध विचारों से तथा धर्म का सम्बन्ध प्राचारों से हैं । धर्म प्रवृत्तिमूलक होता है । वहां भी निश्चय धर्म स्ववृत्ति अथवा पर से निवृत्ति मूलक है तथा व्यवहारधर्म पराश्रयवृत्ति का द्योतक है । अतः धार्मिक विचारों के अंतर्गत स्व-पर प्रवृत्तिमूलक आचरणों की चर्चा अभिप्रेत रहती है। प्रात्मा को अपथा मार्ग से हटाकर स्वरूप की प्राप्ति हेतु स्वसम्मुख प्रवृत्ति कराना धार्मिक प्राचारों का मुख्य प्रयोजन है । इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए स्वामी समंतभद्र में धर्म का स्वरूप स्पष्ट करते हए लिखा है कि यहाँ उस समीचीन धर्म का उपदेश दिया जाता है, जो जीवों को संसार के चतर्गति सम्बन्धी दुःखों से बचाकर श्रेष्ठ मोक्ष सुख में ले जाता है तथा जो कर्मों का नाश करने वाला है।' ऐसा धर्म धर्म के ईश्वर अर्थात् तीर्थंकरोंग गम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सयरचारित्रम्प कहा है और इनके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र को संसार परिभ्रमण की परम्पर का कारण लिखा है। अतः उक्त धर्म के प्राधारों को दो विभागों में निरूपित किया गया है। उनमें प्रथम है। मनि प्राचार तथा द्वितीय श्रावकाचार । उक्त दोनों प्रकारों पर क्रमशः विचार किया जाता है । मुनि प्राचार यहां मुनि प्राचारों का प्राकलन करने के लिए सर्व प्रथम मुनि के स्वरूप का अवलोक करना आवश्यक है। १. देशवामि नमीचीनं धर्म कर्मनिबहंशाम् । संभारदुःस्वतः सन्नात् यो धरायतमे सुखे ॥२॥ २. सदृष्टि भा. वृत्तानि धर्म धर्मेश्वग विदुः । पदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। ३ ॥ करण्ड श्रावतार
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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