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प्राचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का काम जानना है वह जानने का ही कार्य करता है अन्य कुछ नहीं कर सकता। दर्शन गुण का काम देखना है, वह देखने का ही काम करता है, जानने का नहीं क्योंकि एक गुण में दूसरे गुण का कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है । एक गुण दूसरे गुण के कार्य परिणमन) में अनुकूल होने पर निमित्त हो सकता है किन्तु उसका कर्ता नहीं। इससे स्पष्ट है कि द्रव्य की भांति द्रव्य के गुण भी परस्पर में कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं रखते, मात्र निमित-नैमितिक सम्बन्ध रखते हैं। जिस प्रकार द्रव्य तथा गुण अपने अपने कार्य के कर्ता हैं उसी प्रकार प्रत्येक गुण में उत्पन्न होन बाली प्रतिममयवर्ती पर्यायें भी परस्पर में स्वतन्त्र होती है। कोई भी पर्याय किसी भी अागामी या पूर्व पर्याय की कर्ता नहीं होती. क्योंकि उन पर्यायों में परस्पर प्रागभाब एवं प्रध्वंसाभाव होता है। इस तरह, प्रत्येक पर्याय भी अपनी अपनी स्वतंत्रपने कार्यकर्बी हैं अतः द्रव्य भी स्वतन्त्र, गुण भी स्वतन्त्र तथा पर्यायें भी स्वतन्त्र हैं। कोई किसो के आधीन नहीं है। न द्रव्य को किसी ने रचा है, न गुण को कोई ने बनाया है, वेवयं सत रूप हैं, जो सत् रूप है उसका कोई कर्ता नहीं होता है अतः द्रव्य स्वभाव एवं गुण स्वभाव पूर्णतः स्वतन्त्र अनादि अनंत, प्रकृत तथा अकार्य हैं। पर्याय भी पर्याय रूप मे सत् होने से अपनी स्वतन्त्र सत्ता तत्तत्समय के लिए रखती है। इस प्रकार सत के स्वतन्त्रपन की घोषणा द्वारा आचार्य अमृतचन्द्र में समस्त द्रव्य तथा उनके समस्त गुण और पर्यायों को स्वतन्त्र बताया है। जैन दर्शन कर्तावादी दर्शन नहीं है बलिक ज्ञातावादी दर्शन है। ज्ञातापने में सहजसुख एवं परम शांति या निराकुलता होती है। जबकि कर्तापने में कर्तृत्व की याकुलता एवं अशांति ही होती है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने जैन दर्शन के उक्त रहस्य को प्रस्तुत करते हए समस्त परमार्थ शांति का इच्छ को को परम शांति का माग प्रदर्शित किया है। mom...mmmmmmmmmmmmmmmmmm
वस्तु एक वय नाम करता परिनामी दरब, करप रूप परिनाम । किरिया परजय की फिरनि, बस्तु एक य नाम ।।
-समयसार नाटक, कर्ता कर्म क्रिपा द्वार,
१. समय तार कलश ६२