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________________ ३५८ ] । प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व होना निर्जरा है । वह विपाकजा तथा अविपाकजा दो प्रकार की है । समय पर उदित होकर फल देकर कर्मों का झड़ जाना विपाकजा निर्जरा है तथा तपादि द्वारा उदय में न पाये हुए कर्मों को उदयावलि में लाकर उन्हें झड़ाना अविपाकजा निर्जरा है । यह निर्जरा तपस्वियों के होती है । ग्रागे क्रमशः अवमौदर्य, उपवास, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशय्यासन ये ६ बाद्य तप तथा स्वाध्याय, प्रायश्चित्त, वैयावृत्त, व्यत्सर्ग, विनय और ध्यान ये ६ अंतरंग तपः इस प्रकार कुल १२ तपों का वर्णन करते हुए अधिकार समाप्त किया। अष्टमाधिकार में मोक्षतत्व का स्पष्टीकरण है, जिसका प्राधार सन्वार्थसूत्र का दाम अधिकार है । विशद् स्पष्टीकरण हेतु राजवार्तिक को भी आधार बनाया गया है । बंध के कारणों के प्रभाव तथा पूर्वबद्ध समस्त कर्मों की निर्जरा को मोक्ष कहते हैं । केवली के दो भेद सयोग तथा प्रयोग रूप से किये हैं और सबोगी के एकमात्र सातावेदनीय का वन्ध होता है। परन्तु प्रयोग केवली के नहीं होता। आगे मुक्त जीवों के प्रौपशमिनादि भावों का और भव्यत्व का भी प्रभाव होना वर्णित है । उनके उस समय सिद्धत्व, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन ये चार विनापान रलते हैं : गापि संध को परम्परा अनादि है, तथापि उसका विनाश सम्भव है । समस्त कर्मों के क्षय होने पर जीव स्वभावतः उर्ध्व गमन करके लोकांत में स्थित होता है। उससे ग्राग धर्मास्तिकाय रूप गति-निमित्तिक द्रव्य का प्रभाव होता है। अवगाहनशक्ति के कारण एक ही स्थान पर अनंत सिद्ध विराजमान हैं। इस तरह मोक्ष विषयक शंकानों का समाधान करते हुए अधिकार समाप्त किया। अंत में उपसंहार रूप में कहा कि प्रमाण, नय, निक्षेपादि द्वारा सात तत्त्वों कोजानकार मोक्षमार्ग का अाश्रय लेना चाहिए। मोक्षमार्ग को निश्चयव्यवहार रूप निरूपित करके उनमें कथंचित् साध्य-साधन भाव भी कहा है । निश्चय मोक्षमार्ग स्वाचित (आत्माश्रित) है । व्यवहार मोक्षमार्ग 'पराश्रित है । निश्चय से षट्कारकादि के विकल्प एक ही प्रात्मा में सुघटित है, अतः अंत में कहा कि जो सुबुद्धि इस तत्त्वार्थसार को जानकर मोक्षमार्ग में स्थिरता करता है, वह संसार बंधन से छूटकर निश्चय मोक्षतत्त्व को पाता है । अन्य ग्रंथों की भांति इसमें कर्तापन के विकल्प का निषेध किया है। इस तरह तत्त्वार्थसार लघुकाय ग्रंथ होने पर भी मोक्षमार्ग का सांगोपांग वर्णन करने वाला अद्वितीय ग्रंथ है। जो सामग्री तत्त्वार्थसूत्र में सविस्तार
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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