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रचे थे, किन्तु उस समय के भारत के दार्शनिक क्षेत्र में होने वाली उथलपुथल ने जैन धर्म दार्शनिकों का भी ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था, फलतः जैन धर्म के बड़े बड़े नथ रचे गये। गुप्तराजाओं का काल भारतीय दर्शन की समृद्धि का काल था। इस काल में सभी क्षेत्रों में प्रख्यात दार्शनिक हुए । और उन्होंने अपनी रचनाओं से भारतीय माहित्य के भण्डार को समृद्ध । किया । इधर दसवीं शताब्दी में अमृतचन्द्र की टीकात्रों की रचना होने पर राममेन ने "तत्त्वानुशासन", नमिचन्द्र ने "द्रव्यसंग्रह", अमितगति प्रथम ने "योगसार प्राभूत", पद्मप्रभमलघारीदेव ने अपनी टीकायें, पद्मनंदि ने 'पद्मनंदिपंचविंशतिका" की रचना की । इसके पश्चात् ही माइल्ल घवल ने नयचक्र ग्रंथ रचा। उन्होंने उसमें मयों के विवेचन के साथ अध्यात्म का विवेचन किया।' उक्त विद्वान लेखक ने प्राचार्य अमृतचन्द्र को जैन अध्यात्म का मूर्धन्यमणि भी निरूपित किया है।
इस तरहमारतीय संस्कृत वाङ्मय को सुसमृद्ध करने वाले, विशेषतः जैनश्रमण परम्परा के अध्यात्म ब तत्वज्ञान विषयक साहित्य को समृद्ध, परिपुष्ट तथा व्यापक बनाने वाले प्राचार्य अमृतचन्द्र का व्यक्तित्व विशाल एवं असाधारण है । उनका कर्तृत्व अप्रतिम तथा महान् है। उनके व्यक्तित्व तथा ग्रंथों पर अद्यावधि विस्तृत अध्ययन नहीं हया था जिसकी अत्यधिक
आवश्यकता थी। इसी दृष्टि से हमने यह छोटा सा प्रयास किया है जिसके द्वारा आचार्य अमृतचन्द्र और उनके प्रथों पर शोषपूर्ण प्रकाश डाला गया है। उनके समग्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का व्यवस्थित प्राकलन एवं मूल्यांकन प्रागामी अध्यायों में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
१. जं. मा. का इतिहास (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) पृ. १७६ २. श्री कुन्दकुन्दाचार्य का जीवन परिचय-संग्राहक ब. दवाचन्द, प. ६ से १ तक
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