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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणु-कुट्टनीगातस्पर्श इव, सफरस्य बडिश मिषस्वाद इव, इन्दिरस्यसंकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदीपाचोरूप इछ, कुरड गस्य मृगयगेयस्वर इव, दुनिर्वारेन्द्रियवेदनावशीकृतातामासन्न निपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमध्यगम्शेन दोपहातिशीतन्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रहोणदाहज्वरस्यारनालपरिषेकः इव । निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च बटाचूणविचूर्णमिव विनष्कर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव । रूलवणस्यालेपनदान मिष, विषय व्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासौ । ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।"
इस तरह अमृतचन्द्र का गद्य उच्चकोटि का गद्यकाव्य है । उपयुक्त विशेषताओं के अतिरिक्त वे अनेक गद्यशंलियों के प्रणेता हैं। उनमें प्रमुख हैं-हेतुपुरस्सर न्यायर्शली, व्युत्पनिलो, दृष्टांतशैली, निश्चयव्यवहारनयप्रतिपादनशैली, व्याख्याशैली, अनुमानपरकशैली, प्रश्नोतरशैली, क्लिष्टदार्शनिक विवेचनशैली, प्रश्नशैली आदि। इन शैलियों का १. जिनकी "हृत" (निन्द्र) इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाध
संयोगों के कारण) दुःख नहीं है, किन्न स्वाभाविक ही है क्योंकि उनकी विषयों में रतिदेखी जाती है। जैसे हाथी हथिनी रूपी कुट्टिनी के शरीर स्पर्श की ओर, मछली बंमी में फंसे हुए मांस के स्वाद की पोर, भ्रमर बंद हो जाने वाले कमल की गंध की ओर, पंतमा दीपों की ज्योति के रूप की भोर, और हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं। उसी प्रकार दुनिधार इन्द्रिय वेदना हे वशीभूल होते हुए वे लोग वास्तव में, अतिसमीप नाशस्वभाव वाले विषयों की ग्रोर दौड़ते दिखाई देते हैं। और यदि उनका दुःख स्वाभाविक है ऐसा न माना जाय तो जैसे जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना लाने के लिये प्रयास करता, तथा दाहाबर उत्तर जाने पर कांजी से पारीर के ताप को उतारता, तथा अखिों का दुख दूर हो जाने पर वटाचर्ण (शंखादि का चूर्ण) आंजता, कर्णशूल नष्ट होने पर बकरे का मूत्र कान में डालता और घाव भर जाने पर कोई पुनः लेप करता दिलाई नहीं देता। इसी प्रकार उनके विषय व्यापार देखने में नहीं आना चाहिये, किन्तु उनके वह (विषय प्रवत्ति) तो देखी जाती है, इससे सिद्ध हुप्रा कि जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानियों के दुःख स्वाभाविक है ।
-प्रवचनसार, गाथा ६४ की टीका, पृष्ठ ६२