________________
१८ ]
[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्त त्व
श्रद्धा कराने हेतु लौकियः सुखाभास को सुख पुकारना रूढ़ि मात्र है, परमार्थ नहीं - ऐसा ज्ञान कराया तथा यह भी लिखा कि जो इस परमार्थ सुख को श्रद्धा तत्काल करते हैं वे निकट-आसमभव्य (निकट भविष्य में मोक्ष पाने योग्य) हैं तथा जो इसकी श्रद्धा बाद में करेंगे वे दूर भव्य हैं और जो इसकी श्रद्धा नहीं करेंगे वे अभव्य हैं। इस प्राशय की गभीर तथा प्रौढ़ गद्य टीका इस प्रकार है - ''इह खलु स्वभाप्रतिघातादाकुलत्वाच मोहनीयादिकर्मजालशलिनां सुखाभासेऽप्यपारमाथिको सुखमिति रूढ़िः । वेवलिनां तु भगवतांप्रक्षीणपातिकर्मणां स्वभावप्रतिघाताभावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लक्षणस्य च सद्भावात्सारमाथिकं सुख मिति श्रद्धेयं । न किलवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुख सुधापानदूरवर्तिनो मृगतृष्णाम्भोमार मेवामिष्य.. पश्यति । पुनदिविलीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवश्रियो भागनं गमासन्मभव्यः भवन्ति । ये तु पुरा प्रतोच्छन्ति ते तु दूर भव्या इति ।'
आचार्य अमृतचन्द्र के पद्य की प्रौढ़ता के साथ-साथ अलंकारमयी गद्यकाव्य की छटा भी अत्यात सरस एवं रमणीय है।
इन्द्रियाधीनता जब तक है तब तक दुःख ही है, इस तथ्य के स्पष्टीकरणाथ प्रयक्त गद्य में उपमाओं को झड़ी द्रष्टव्य है, गद्यकाव्य की सरसना एवं रमणीयता प्रास्वाध है -.. यथा--
__ "येषां जीवदवस्थानि हतकानीन्द्रियागि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम् । किन्तु स्वाभाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । १. ''इस लोक में मोहनीय प्रादि कर्मजाल वालों के स्वभाव प्रतिपात के कारण
और प्राकुलता के कारण मुखागास होने पर भी उम सुखाभास को "सुल" कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है, और घातिकर्म नष्ट कर चुकने बाले केवली भगवान के स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के यथोक्ता कारण तमा लक्षण का सदभाव होने से पारमार्थिक सुख हैयह श्रद्धा करने योग्य है। जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं हैं वे मोक्षसुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते (अनुभव करते) हैं, और जो इस वचन को इसी समय स्वीकार करते हैं वे शिवश्री (मोक्ष लक्ष्मी) के भाजन आसन्नभन्य हैं और जो प्रागे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर भव्य हैं।" -प्रवचनसार गापा ६२ की तत्त्वप्रदीपिका टीका, पुण्ठ ९०