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प्रात्मख्याति टीका परिचय -
द्वितीय विभाग में टीकाओं के अंतर्गत सर्वप्रथम आलोच्य कृति आत्मख्याति संस्कृत गद्य टीका है। यह आचार्य श्रेष्ठ कुन्दकुन्दस्वामी द्वारा प्रणीत परमाध्यात्मिक "समयपाहुड" (समयमा भूत ) नामक रचना की मर्मस्पर्शी, रहस्योद्घाटक टीका है । यह परमानन्द रस से परिपूरित, अनभव-लहरी से उद्वेलित तथा ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा के अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द से परिपूर्ण कृति है । आत्मन्याति जैसी परमआध्यात्मिक, अलौकिक टीका अभी तक भी कोई दूसरे जैनग्रन्थ की नहीं लिखी गई है । यद्यपि अमृतचन्द्र ने अन्य टीकायें तथा,मौलिक रचनायें भी की है, तथापि उनकी यह एक अात्मस्यानिटीका हो गढ़ने वालों को अमनचन्द्र की अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभूति, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूप को न्याय बयक्तियों से सिद्ध करने की असाधारण शक्ति नथा उत्तम काव्य-शक्ति का पूरा ज्ञान हो जाता है । अति संक्षेप में गंभीर रहस्यों को अभिव्यक्त करने को उनको अनाखो क्षमता विद्वानों को आश्चर्यचकित करती है। यह टीका ज्ञानसमूद्र भगबान आत्मा के शांत रस का रसास्वादन कराने वाली तथा प्रालीक-लोकपर्यंत उछलते हुए शांत रस के समुद्र में मग्न हो जाने की प्रेरणा प्रदान करने वाली है।'
जिस प्रकार मुल शास्त्र-कर्ता ने अपने समस्त निज वैभव से ग्रन्थ की रचना की है उसी प्रकार इसके समर्थ टीकाकार ने भी अति निस्तुषनिर्बाध यक्तियों के अवलम्बन से, आत्मस्वरूप में निमग्न परापर मुरुओं की कृपा से, स्यात्पदमुद्रित शब्दब्रह्म-श्रुतागम की उपासना से तथा प्रचुरस्वसंवेदन से उत्पन्न से निजवैभव से ग्रन्थ की टीका रची है। उन्होंने आत्मख्याति टीका द्वारा भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य के हृद्गत मर्म को गणधर के समान सफलतापूर्वक उद्घाटित किया है। यह कृति जैन
१. मज्जन्तु निर्भरममी नममन्य लोका, मालोकमुच्छलात शान से समस्ताः । याप्लाव्य विभ्रमतिरस्क रिगीं भरेण, प्रोन्मग्न एप 'भगवानबबोधसिन्धुः ।।
ममयसार कलश, ३२ २. रामयभार गाथा ५ की टीका - समस्त विपक्षक्षात्क्षमातिनिस्नुपयुनायवलंबन
जन्मा, निर्मलविज्ञानधनांतनिमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतसुद्धात्मतत्वानुशासन जन्मा - स्वसदन जन्मा"..........."