________________
कृतियाँ ।
अमृतचन्द्र ने साहित्यिक निरूपण गलियों के प्रौढ़तम प्रयोग किये हैं। अंन में स्वरूप मानता के साथ ही टीका की समाप्ति की है।
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी अन्य टीकाकृनियों की भांति इस टीका में भी अंत में टीका के कांपने का निषेध किया है एवं स्वरूप मग्न होने की घोषणा की है । यह विशेगता मतबन्द की प्रायः सभी कृतियों में पाई जाती है । इमप्रकार इस कृति में भी प्राचार्य अमृतवन्द्र ने अपनी विप्रेष निरुपण प्रणाली की छाप छोड़ी है। ग्रन्थ वैशिष्ट्य :
उक्त ग्रन्थ के कुछ वैशिष्ट्य इसप्रकार हैं - १. अनेक लौकिक-अमोरिक निरूपण गलियों का प्रयोग है। २. भाषा प्रौढ, क्लिष्ट तथा दुर्गम है । ३. सैतालीस नयों द्वारा आत्मा के अनेत्रांत स्वरूप की सिद्धि करना
अमृतचन्द्र की एक अपनी ही विणेषता है। ऐसा निरूपण अन्यत्र
दुर्लभ है। ४. सर्वत्र समासबहल, प्रचार प्रचर तथा विस्मयोत्पादक विचारधारा
प्रवाहित हाई है। सिद्धांत-निरूपण में निर्भीकता एवं दृढता का परिचय प्राप्त होता है। चारित्र के सम्बन्ध में वे स्पाद घोषणा करते हैं कि मरागचान्त्रि अनिष्ट फलवाला, पायबंध प्राप्ति का हेतु. देवेन्द्र प्रसुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभवरूप कलेश तथा बंध का कारण है, अतः हेय है और वीतगा चारित्र इण्टफन्सवाला. मोक्षशाप्ति का हेतु, सर्वक्लेशरहित मोक्ष का कारण है, अतः उपादेय है । यह अमृतचन्द्र को सैद्धांतिक दृढ़ता तथा निर्भीक घोषणा है, जो अपने माप में एक विशेषता है। इसीप्रकार भोपयोग को विरोधी शक्ति महिल, स्वकार्य करने में असमर्थ तथा गरम घी की भांति जलन पैदा करने वाला होने से य कहा और गृहोपयोग की विरोधी शक्ति रहित, स्वकार्य करते हों समर्थ, निर 'कूल सुत्र पैदा करने वाला होने से उपाय बताया । उन्होंने अगुभोपयोग को अत्यन्त हेय, शुभोपयोग को हेय तथा शुद्धोपयोग को एक मात्र उपादेय सिद्ध किया है।'
१. प्रजननपार, गावा ५-६ नोकर।। २. यही. मा ११--१२ ।