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________________ ११६ ] [ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृ 3 郝 श्रमरता प्रधान करने में समर्थ है। प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय प रचित तत्त्वप्रदीपिका एवं समय व्याख्या नामक गद्य टीकाओं में व्याख्यात अमृतचन्द्र की विद्वत्ता दार्शनिकता तथा प्रौढ़ता का उत्कर्ष चरम सीम को स्पर्श करता प्रतीत होता है । ये दोनों टीकाएं गम्भोर- संद्धांति व्याख्यान तथा दर्शन पर होने के कारण अधिकाश गंधरूप में है, कहीं पाठक उनकी दार्शनिकता, कवित्व शक्ति तथा भावोद्रक को पद्यरू में भी प्रस्फुटित पाते हैं। उनकी टीका तत्वप्रदीपिका में १४ पद्य त समयव्याख्या में " पद्य सहज ही अभिव्यक्त हुए हैं । समयसार को आर स्वाति टीका में उनकी प्रखर विद्वत्ता के साथ ही साथ अध्यात्म र सिक का चरमोत्कर्ष विद्यमान है । यद्यपि इस टीका में गद्य तथा पद्य दोनों क सामन्जस्य है तथापि इसमें अभूतचन्द्र की असाधारण काव्यप्रतिभा विशेष रूप से प्रगट हुई है। इससे यह बात भी प्रमाणित होती है कि अमुच मात्र गटीका लिखने में ही नहीं अपितु पद्यटीका लिखने में भी सिद्धह थे । पद्यटीकाकार के रूप में उनका व्यक्तित्व "तत्त्वार्थसार नामक प टीकृति से स्पष्टतः प्रमाणित है। तस्वार्थसार पद्यटीका गृद्धपिच्छाचारी उमास्वामी के तत्त्वार्थ सूत्र पर आधारित ७२० पद्यों में है । इस तर स्पष्ट है कि अद्यावधि उपलब्ध अमृतचन्द्र की समस्त रचनाओं में बहुभा टीका साहित्य तथा शेष भाग मौलिक साहित्य के रूप में है । इसे ह उनके व्याख्याकार होने का प्रमुख आधार मान सकते है । २. सोद्दश्य टीका कृतियाँ- उनकी समस्त टीकाकृतियों की सृष्टि एक विशिष्ट उद्देश्य को लेकर हुई है, पाण्डित्य प्रदर्शन उनका ध्येय नहीं था । वे पाण्डित्यप्रदर्शन के काल में हुए तथा एक सफल व्याख्याकार रूप में उन्होंने विभिन्न टीकाओं की रचना के उद्देश्यों को प्राप्त करने सफलता प्राप्त की । प्रत्येक टीका के आरम्भ में उन्होंने अपने उद्द को स्पष्ट घोषित किया है। आत्मख्याति टीका की रचना का घोषित करते हुए वे लिखते हैं--" परपरगति ( विकारदशा) का कार मोहनामक कर्म है, जिसके अनभव से मेरी परिणति मलिन होती रही हैं अब इस समयसार की व्याख्या द्वारा मेरी परिणति परम विशुद्धि को प्राप्त होवे में द्रव्यदृष्टि से शुद्धचैतन्यमात्र मूर्ति हू। इसी तरह तरबप्रदीपिक " १. श्रात्मस्वाति, नमयसार, कलश, पद्य क्रमांक ३
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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