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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एव कर्तृत्व परमेष्ठी होते हैं। तथा जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा देने और अनुग्रह करने में कुशल हैं, जो सूत्र (परमागम) के अर्थ में विशारद है, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण (आचरण) तथा वारण (निषेध) और शोधन अर्थात् प्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में निरंतर उद्यत रहते है उन्हें प्राचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए। प्राचार्य अमृतचन्द्र ऐसे ही गंभीरतम, गुरुतम, एवं महानतम पद से सुशोभित थे। अमृचन्द्र की कृतियों तथा परवर्ती लेखकों के मोख रो या नदी र गित हो जाता है कि अमृतचन्द्र में उन समस्त वैशिष्ट्यों को विद्यमानता थी जो आचार्य परमेष्ठी में होना चाहिए । आचार्य अमृतचन्द्र स्वयं भी पंचाचार के पालक थे और औरों को भी पंचाचार के पालन का उपदेश भी उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी कृति प्रवचनसार की टीका "तत्त्वप्रदीपिका" में दिया है। उन्होंने दीक्षाविधि तथा पंचाचार का स्पष्ट एवं विशद व्याख्यान किया है । पंचाचार में वे लिखते हैं कि ग्रहो ! काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिलव, अर्थ, व्यंजन और तदुभय रूप ज्ञानाचार को मैं तबतक के लिए धारण करता हूँ जबतक तेरे प्रसाद (निमित्त)से में शुद्धात्मा को प्राप्त कर लूं । निःशंकित, निकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढष्टि, उपगहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना रूप दर्शनाचार, मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत, तीन गुप्ति, पांच समिति रूप चारिप्राचार, अनशन-अवमोदयं प्रादि बारह तप रूप तपाचार तथा समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति के अगोपनरूप बीर्याचार हैं। इन पांचों को निश्चय से शुखात्मा से भिन्न जानता हुमा भी तब तक के लिये धारण करता है जब तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को प्राप्त कर लूं।' वे प्रागे यह भी लिखते हैं कि उपरोक्त पंचाचार को धारण करके श्रामप्यार्थी प्रणत तथा अनुगृहीत होता है। प्रणतविधि पर प्रकाश डालते हुए प्राचार्य अमृत चन्द्र लिखते हैं कि जो आचरण करने तथा माचरण कराने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृत्ति के समान होने से श्रमण हैं, श्रमण का आचरण करने तथा प्राचरण कराने में प्रवीण होने से गुणाढय हैं, समस्त लौकिक जनों द्वारा संव्य (सेवा योग्य) होने से और कुलक्रमा
१. भक्ला पुस्तक १, गाथा ३१ २. प्रवचनमार, बरवपदीपिका, टीका चरणानुयोग सूचक चुलिका गाथा २०२ ३. प्रवचसार, टीका पृष्ठ ३१०-३११